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ये तपस्वी मुनिराज सदा प्रसन्न शंका समाधान को प्राप्त तप में लीन तक्र को आहार में लेते हैं। शंका आने पर उसकी विधि समझाते द्विदल के भक्ष-अभक्ष का विवेचन करते। अच्छी तरह उवाले दूध की भक्ष और बिना उवाले दूध की छांछ अभक्ष है।
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पंचेव टीकमगढादु हु किंचि-दूरे उत्तुंगबिंब-बहु गंध-कुडी पपोरे। दंसेज्ज अण्ण-दिवसे कचलुंच साहुँ।
आसेज्ज टीकमगढो चदुमास-हेदूं ॥17॥ पांच किलो मीटर की दूरी पर पपौरा है टीकमगढ़ से। यहाँ 105 उत्तुंग जिनालय हैं। बाहुबलि की उत्तुंग प्रतिमा एवं गंध कुटियों से शोभायमान है। जहाँ दूसरे दिन साधु केशलोंच करते हैं। यहीं पर टीकमगढ़ चातुर्मास हेतु आशीष प्राप्त करता है। टीकमगढ़-चाउम्मासो
18 सत्ताणवे हु चदुमास-इधेव-संघो बुदेलखंड पढमो मणुजेसु किंचि। मूढाण संक-समएज्ज मुणीस-एसो
वासोववास-मुणिराज-कुणंत चिट्ठ॥ 18॥ सन् 1997 में टीकमगढ़ चातुर्मास हुआ। यह बुंदेलखंड का प्रथम चातुर्मास था। यहाँ कुछ मनुष्यों में शंका थी, उन मूढजनों की शंकाओं का समाधान आचार्य श्री करते हैं। वे उपवासों के ऊपर उपवास की विधि करते हुए वहाँ स्थित रहते हैं।
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अत्थे सुणील-मुणि-वास-तिहिं चदुत्थं पाइण्ण-सत्तमि-तयोदस-सुक्क-किण्हे। णाणामिदो मुणिसुणील-ससज्झमाणो
अज्झेदि अज्झविदि सुत्त-सुतच्च अत्थं ॥19॥ यहाँ पर मुनि सुनीलसागर (प्राकृताचार्य नाम से प्रसिद्ध) गुरुवर शुक्ल व कृष्ण दोनों सप्तमी व त्रयोदशी पर उपवास करते हैं। ये मुनिश्री ज्ञानामृत रूप स्वाध्याय युक्त सदैव अध्ययन करते सूत्र-तत्त्वार्थ सूत्र का और उसके अर्थ को प्रतिपादित करते हैं।
160 :: सम्मदि सम्भवो