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सच्चाणुवेसि-असणे अवि किंचिणिद्दे मोणासयी कुमुदणंदि-पदत्त-गंथं । सम्मासएज्ज परमागम-सुत्त-कुंदे
पंचत्थिकाय-वयणेण सुसार-सव्वं ॥20॥ इधर सत्यानुवेषी मुनि सुनीलसागर अल्पाहारी एवं अल्पनिद्रा युक्त हो गये। वे मौना-श्रयी कुमुद नंदी द्वारा प्रदत्त ग्रंथ को आचार्य श्री को प्रदान करते हैं। वे सत्य पर मुनिश्री से आश्वस्त रहते हैं। इधर पंचागम परमागम के सूत्र पंचास्तिकाय की वाचना से उस पंच अस्तिकाय के रहस्य को समझते हैं।
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सुज्जासिरी वि समहिंच सुबोह-अज्जी कल्लाण-पंच-सिरि-सिद्ध सुचक्क पाढो। पंडाल-मंच-अणुभू-गद-काल-सूरी
संबोहदे सयल-कज्ज-विधिं च जादो॥21॥ यहाँ अर्यिका सूर्यमति एवं सुबोधमति भी समाधि को प्राप्त हुईं। यहाँ बड़े मंदिर में सिद्धचक्र का पाठ हुआ। दिसंबर में पंचकल्याण प्रतिष्ठा के समय पांडालमंच गिर जाने पर भी आचार्य श्री सम्पूर्ण विधि को कराने में समर्थ हुए और वे प्रति दिन संबोधित भी करते रहे।
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णंदीसरस्स जिण-पाण-पइट्ठ पच्छा बाबू-गुलाब-विमलो लखमी वि मूलो। दव्वं च सावग-गुणं णियमं च सारं
सीदस्स वायण-सुदस्स समाइधाणं॥22॥ टीकमगढ़ में नन्दीश्वर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद बाबूलाल, गुलाबचंद्र पुष्प विमल सोरया एवं मूलचंद्र आदि द्रव्यसंग्रह, श्रावकाचार, नियमसार की शीतकालीन श्रुत की वाचना एवं समाधान को महत्व देते हैं।
23 वेदीइ मूल-पडिमादि सुवण्ण-कज्जे अण्णत्त-णेयगजणा वि पयास-कुव्वे। ते किंचिमेत्त-चलणे ण समत्थ-जादा तत्तो विचित्त परिचिन्तण सोहणे हु॥23॥
सम्मदि सम्भवो :: 161