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34 तित्थंकराण धरणी उवदेस-खेत्तो वावीस-तित्थ मुणि-सुव्वय-जम्म-ठाणं। रज्जो जरासधय सेणिग-राज-राजे
सोकारि-कस्सि-सिक-सेणिग-जेणधम्मी॥34॥ यह राज राजाओं की शोभा वाली राजगृही शौकरिक कसाई एवं श्रेणिक जैसे शिकारी को जैनधर्मी बनाने में समर्थ हुई। यहाँ जरासंध एवं श्रेणिक राजा का राज्य था, यह तीर्थकरों की देशना स्थली व बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत की जन्मस्थली है।
35 एसो हु खेत्त-असुरक्खिद-वण्ण-जीवी मूगा मिगा अणुचरेंति वि सप्प-आदी। णिव्भीग-सोणगिरि-आदि जिणाण बंदे
अत्थेव बारह सदस्स जिणालयो वि॥35॥ यह क्षेत्र पूर्ण असुरक्षित-अरण्य जीवी है। यहाँ मूक पशु मृग, सर्प आदि विचरण करते हैं। फिर भी संघ निर्भीक ही स्वर्ण, वैभार, रत्न, उदय, विपुलाचल पर स्थित जिनबिंबों के दर्शन करता है। यहाँ बारह सौ वर्ष पूर्व का एक जिनालय भी है।
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दंसेज्ज बिंब-जिण-दसण-कित्ति-ठाणं अग्गे चरेदि लघुसंक-कउस्स जुत्तं । हासं कुणंत जुव-वाइग-घाद-जुत्ता
रक्खेज्ज रक्ख किसकम्मि तधे सुरक्खे ॥36॥ जिन दर्शन, महावीरकीर्ति का कीर्ति स्थान (स्मृतिस्थल) आदि देखते। किंचित् आगे जाते ही लघुशंका युक्त सुनीलसागर शुद्धि पूर्वक कायोत्सर्ग करते, तभी दो युवक हास (निंदा) करते हुए वाइक से गिरे और घायल हो गये। बचाओ, बचाओ ऐसा शब्द सुनकर कृषक आया उनकी सुरक्षा करने लगा।
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जिंदं कुणेति मणुजा इध जम्म-काले भुंजेंति अज्ज समए पर काल-जादे। भो सम्मदी! हु अणुसीलग माणवा तुं
सम्म कुणेह अणुपेह मणे विचिन्ते॥37॥ भो सन्मति ! अनुशीलक मनुज अच्छा से अच्छा करो, मन में अच्छाई का
सम्मदि सम्भवो :: 165