________________
हमारी चौबीस तीर्थकरों की परंपरा ऐसी ही है। हम ईर्या समिति पूर्वक चलते हैं। स्वाध्याय, ध्यान, तप निष्ठ हम श्रुतानुपक्षी (शास्त्रोक्तविधि को मानने वाले) हैं। अरे! मिर्जापुर में एक कुत्ता भी नवकार मन्त्र से देव हुआ।
31 वाराणसीइ इग लंक-सुठाण-वासं किच्चा हु कोडि-णयरे मुणि-सिद्ध मुत्ती। सो सेरघाडि अदिरम्म सुमग्ग-जुत्तो
डोभीइ हंटर-गयादि सुगाम खेत्तं ॥31॥ वाराणसी के एक क्षेत्र लंका में प्रवासकर कोडी नगर में संघ आया। यहाँ मुनि सिद्धसागर समाधिगत हुए। फिर संघ अतिरम्य आम मार्ग युक्त शेरघाटी आया। डोभी, हंटरगंज आदि ग्रामों के पश्चात् गया स्थान पहुँचा। तित्थ-राजगेही
32 मग्गे हु लुंटकजणा भयभीद-कत्तुं। अग्गे चरेंति गणि-ताव-पभाव-संता। सिंघाटिया हजणरोठ-कुसो हि सुग्गो
राजग्गहीइ सदसेट्ठि-बहुल्ल अग्गी ॥32॥ मार्ग में लुटकजन भयभीत करने के लिए आगे आते, पर आचार्य श्री के तप साधना के प्रभाव से संत की तरह शान्त हो जाते हैं। संघ सिंघाटिया, जनरोठा कोशला, हिसुआ आदि होता हुआ राजगृही पहुँचा, तब शताधिक श्रेष्ठीजन अग्रणी होकर संघ की अगवानी करते हैं।
33 पंचेव सेलजुद-राजगिही सुरम्मा अस्सिं च अस्थि विउलाचलवेभरो वि। सोवण्णओ रदण-णाम गिरी उदे वि
जीवंधरं वइस-संदिव-पीदि-विज्जुं ॥33॥ पंचशैलपुर नाम से प्रसिद्ध राजगृही अतिरम्य है। विपुलाचल, वैभार, स्वर्ण रत्न और उदयगिरि नामयुक्त पांच पर्वत हैं। यहाँ से जीवंधर, वैशाख, संदीव, विद्युच्चर, गंधमादन, प्रीतिंकर एवं चारुदत्त आदि मुनि मुक्ति को प्राप्त हुए।
164 :: सम्मदि सम्भवो