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वेदी के मूल में सोने का कार्य चल रहा था, प्रतिमाएँ अन्यत्र की जाने पर वे वापिस अनेक जन द्वारा किंचित् भी नहीं हिली तब परिशोधन कर अशुद्ध लोगों को हटाया गया, तब वहाँ से प्रतिमा हटाई गयी।
24 भत्तिप्पहाण-पडिमाण असुद्ध-वत्थी संचालणे ण हु कदा वि समत्थ-जादा। सुद्धेहि सावगजणेहि सु आसिएज्जा
सूरिस्स ताव-पमुहस्स पभाव-एसो ॥24॥ अशुद्ध वस्त्रधारी भक्तिप्रधान प्रतिमाओं को उठाने में क्या कभी समर्थ हो सकते हैं, अर्थात् नहीं, तपस्वी आचार्य सन्मतिसागर जी के प्रभाव से ही ऐसा आशीष हुआ कि शुद्ध वस्त्र वाले श्रावक गुणी जनों के द्वारा यह कार्य सहज हो गया।
25 तिल्लोकचंद-रदणस्स हु भावणा सि सम्मेद सेल पर जत्त गुरुस्स अत्थि। भासं विणा मलहरे हु आहार-दोणं
सूरीससंघ गुरुदत्तइ-सिद्ध-दोणे॥25॥ इधर तिलोकचंद्र गोधा एवं रतनलाल जी बडजात्या की भावना थी संघ की सम्मेदशिखर यात्रा हो, पर आचार्य श्री कुछ नहीं बोले। मलहरा में जाने पर कुछ बता सकूँगा। संघ आहार के बाद द्रोणागिरि आया। यहाँ से गुरुदत्तादि मुनीन्द्र सिद्धगति को प्राप्त हुए हैं।
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संघो इमो मलहरं च विसेस-णंदं रामो कपूर सिरि-पेम्म बहुल्ल-सेट्ठी। इट्ठोवदेस-अणुवाद विमोचणं च
आदिं समाहि कचलुंच विधिं च जादं॥26॥ मलहरा को जब संघ आया, तब सांसद रामकृष्ण, कपूरचंद्र घुबारा, श्री प्रेमचंद्र एवं अनेक श्रेष्ठी जन विशेष आनंद को प्राप्त हुए। यहाँ इष्टोपदेश के अनुवाद का विमोचन हुआ। आचार्य आदिसागर की 56वीं समाधि एवं आचार्य संघ के केशलोंच का आयोजन हुआ।
162 :: सम्मदि सम्भवो