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संसार सागर से विरक्त हो गये उनकी भट्टारक नांदिणी से दीक्षा होती है। वे क्षुल्लक आदिसागर साधना में लीन हो गये।
35 एलक्कभूद-मुणि-मूलय-उत्तराणं सो तेरहम्हि मुणि-दिक्खय-कुंथलम्हि। सूरिं पदं च मुणिकुंजर-जुत्त-एसो
पण्णारहे हु जयसिंह पुरम्हि तावं ॥35॥ ये ऐलक हुए तब मूलोत्तर गुणों के पालक बने। कंथलगिरि में 1913 में मनि दीक्षा। 1915 में जयसिंहपुर में विशेष तप युक्त इन मुनिश्री को सूरि पद (आचार्य पद) दिया गया। वे मुनिकुंजर उपाधि से सुशोभित हुए।
36 गुंफम्हि वास-उववास वदी हि सूरी कित्तिं महामुणिवरं मुणि सूरि-भारं। दादूण गच्छदि समाहि-सरण्ण-सग्गं
सज्झाय-सील-सिरि-सम्मदि-सायरो वि॥36॥ वे गुफा में निवास करते, उपवास व्रत आदि युक्त वे सूरी महावीरकीर्ति को आचार्य पद (1944) में सौपकर समाधि को प्राप्त होते हैं उनके शिष्य स्वाध्याय शील थे, वे सभी एवं आचार्य सन्मतिसागर भी स्वाध्याय में रत रहते थे।
37 संघे हु सिस्स-बहु-अज्झयणं च जुत्तं सुत्तं पढेदि सुविधिं अणुचिन्तणं च। सोहग्ग-साविग-जुदी पडिमा हु धारी
अस्सेव गिण्ह-अणुसासिद-सोम्म-सीला॥37॥ संघ में अनेक शिष्य थे आचार्य सन्मतिसागर के। वे अध्ययन युक्त, सूत्र पढ़ते, सुविधिसागर इन्हीं के शिष्य अनुचिन्तन को महत्व देते हैं। उनकी अनुशासित एक शिष्या श्राविका प्रतिमाधारी सौभाग्यबाई भी सम्यक् अनुशीलन करने वाली थी।
38 इंदूर-पच्छ मुणिसंघ-पवास-जुत्तो उज्जिण्ण-पत्त-महवीर-जयंति-लाह। पव्वं च अक्खय-तिहिं समदिं सुबुद्धिं सुज्जं मदिं पवजिदं इगवाणवे हु॥38।
142 :: सम्मदि सम्भवो