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गुरु के परमभक्त श्री श्रेष्ठी नाथूलाल एवं माणिकचंद्र फागी थे, जिन्होंने चैत्र कृष्ण की द्वितीया तिथि पर मानस्तंभ एवं जिनमंदिर की प्रतिमाओं का अभिषेक कराया। यहाँ पर केशलोंच के समय में हुकमचंद भारिल्ल द्वारा उपदेश होता है।
64 खंडाग-ठाण-भवणे पहु आदिदिक्खं सेए दिगंबर जणेहि महा हु वीरं। साणक्कुमार परिवारय संत-सेट्ठी
तिज्जारखेत्त अलए वर-चंदबिंबं॥64॥ खंडाका भवन में खंडाका परिवार ने प्रभु आदि का जन्म एवं दीक्षा दिवस मनाया फिर श्वेताम्बर एवं दिगंबर जनों के द्वारा महावीर जयन्ती को विशेष रूप से मनाया गया। सनतकुमार खंडाका आदि एवं संत श्रेष्ठी इसके अग्रगामी बने। फिर संघ तिजारा आया। यहाँ अलवर से जिनचंद्रप्रभु का अभिषेक किया गया।
65 विग्घाहरी हु पडिमा मणमोदिणी वि भूदा-पिसाच अवविट्ठजणाण दुक्खं। खीएज्ज चंदपहु दंसण जाव-जावे
एत्थं च पच्छ मुणिसंघ-गदीइ दिल्लिं॥65॥ तिजारा से चंद्रप्रभु के दर्शन, जाप जपने से भूत-पिशाच पीड़ितों के दुःख शान्त होते हैं। यह विघ्नहारी प्रतिमा मनमोदिनी भी है। यहाँ से संघ दिल्ली की ओर गतिशील हुआ। दिल्लिं पडिपट्ठाणं
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धारूय हेड-पुर जेट्ट किसण्ण-मासे चोदस्सए तितय जम्म-तवं च मोक्खं। पत्तेज्ज संति पहु कल्लणगं विहिं च
रेवाडिये हु सुद पंचमि भव्व-जोज्जं ॥6॥ तिजारा से धारूहेडा में ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन जन्म, तप एवं मोक्ष कल्याणक को प्राप्त शान्ति प्रभु की पूजन विधि करके रेवाड़ी संघ आया। यहाँ श्रुत पंचमी भव्य रूप से मनाई गयी।
150 :: सम्मदि सम्भवो