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की आज्ञा दी। जैन श्रावकों ने संघ को स्थान नहीं दिया तब एक सिक्ख धर्म हेतु पांच माह तक वीरेन्द्र जैन को बड़ा स्थान प्रदान कर देता है । यहाँ पर आचार्य श्री एक आहार एवं एक उपवास आदि की विधि बनाए रखते हैं।
सज्झाय- देस-उवदेस-विहिं विहाणं पत्तेज्ज सावगजणा वि मुणिंद आदिं । दिक्खं दिवं च मुणिदिक्ख चदुत्थजादा णाणं च चारिय सुदंसण तप्प दिक्खा ॥71 ॥
यहाँ संघ स्वाध्याय, देशना, उपदेश, विधि विधान को प्राप्त हुआ । यहाँ मुनीन्द्र आदिसागर का दिक्षा दिवस मनाया गया । यहाँ पर चार दीक्षा भी हुई। सुज्ञान, सुचारित्र, सुदर्शन और सुतपसागर दीक्षित हुए।
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केशलोंच हुए।
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खेत्ते खेत्त विहरंत मुणीस संघो संपण्ण-वासचदुमास छवीस जण्णे । छण्णाणवे दिवस - माउ- सुदाइ दिक्खा हज्जेदि सा सरण-सीदल णाम जुत्ता ॥72 ॥
चातुर्मास के पश्चात् विविध क्षेत्रों में आचार्य श्री विहार करते 1996 जनवरी 26 पर माँ बेटी की दीक्षा युक्त होते हैं । ये शरणमति और शीतलमति नाम युक्त
होती हैं।
विज्जोहा
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खुल्लगं दिक्खणं णेमिए सागरं ।
पंच- केसं लुचं, कुम्मदादी जुवो ॥73 ॥
मिसागर क्षुल्लक दीक्षा को प्राप्त हुए । यहाँ युवाचार्य सहित पांच साधुओं के
152 :: सम्मदि सम्भवो