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भाव मूल में विद्यमान रहते हैं। सो ठीक है तीर्थंकर नाम कर्म की सम्यक् शुद्ध प्रकृति को ऐसी विनय से प्राप्त होते हैं। आचार्य की भगिनी आर्यिका विजयमति माता भी संघ की प्रमुखा भी यहाँ थीं। बलुंदाए पवेसो
53 सेट्ठी सिरी रिखवदास-बलुंद-गामे भव्वादिभव्व-जिणगेह-सुणट्ठ-अटुं। जेणेसरी-भगवदी-पव-जएज्जा
संवेग-सागर-मुणी सुद सेवि-जादो॥3॥ श्रेष्ठी श्री रिखवदास के ग्राम बलुंदा में भव्यातिभव्य जिनमंदिर में अष्ट दिवसीय सिद्धचक्र मंडल विधान का आयोजन हुआ। यहाँ एक जैनेश्वरी भगवती प्रव्रज्या (दीक्षा) हुई एक दीक्षित व्यक्ति संवेगसागर मुनि श्रुत सेवी बने।
54 आणंद-णंद-पुर-कालु विसेस-जादो तेरण्णवे हु चदुमास-पभाव-जुत्तो। कव्वेदि एगरह-वास-मुणीस-पव्वे
चत्तं च देहसिवसागर-संत भावे॥54॥ परम आनंद, आनंद पुर कालू के चातुर्मास में। वह 1993 का चातुर्मास प्रभावशाली हुआ। एकादश दिवस के पर्युषण हुए। इसमें आचार्य श्री ने ग्यारह उपवास किए। यहीं पर शिवसागर मुनि शान्तभाव से देहत्याग करते हैं।
55 धम्मप्पहावण-इधेव गिहस्स खीणे कटुं विणा हवदि पारण-सूरि-अत्थ। आदिं च अंकलिकरं विमलस्स किज्जा
कासाय-भाव-मुणि भत्त-समासएज्जा॥5॥ इस कालू ग्राम में धर्म प्रभावना की गयी तभी तो गृह के गिरने पर भी कोई घटना नहीं हुई। यहीं पर ग्यारहवें दिन पश्चात् आचार्य सन्मतिसागर की पारणा हुई। यहीं आचार्य आदिसागर अंकलीकर के विवाद को आचार्य विमलसागर के आदेश से सुलझाया गया। वहाँ पर अति विरोध एवं काषायिक भावों की वृद्धि का समाधान हुआ।
सम्मदि सम्भवो :: 147