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अंतराय उन्हें दिखाकर अंतराय विधि करते हैं। संघ बुढार से अकलतरा के जंगल के बीच में आता है। वहाँ पर भैंसा उछलने लगता जब आचार्य श्री कहते-नवकार मन्त्र स्मरण करो। ऐसा करते ही वह शान्त हो गया।
70 सो भेद विण्हू-गुरु-दोस-गुणं च झत्ती संकप्पसील-णवकार सुमंत-मंतं। मण्णेज्ज पंच-पद-मुल्ल-अणंत दाई
णेमिप्पहुँ अकलए कहएदि पुज्जो॥7॥ वे वास्तव में भेदविज्ञानी थे, वे गुण-दोष शीघ्र व्यक्त कर देते थे। वे संकल्पशील नवकार मन्त्र की मन्त्रशक्ति को मानने वाले पाँचों पदों को मूल्यवान एवं अनन्तफलदाई भी प्रमाणित करते। अकलतरा में नेमिप्रभु को प्रथक् रखे हुए दोषयुक्त मानने वालों के लिए निर्दोष एवं पूजनयोग्य है। ऐसा भी सम्बोधित करते हैं।
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किंचिं च पच्छ-विहि-पुव्व-सुवेदि-मज्झे संचिट्ठदे हु तध माणुज धण्ण-धण्णा। जाएंति सुटु-परमादु धणादु धण्णं
दोसा मणे वि मणि-कंचय-कंचणम्मि॥1॥ कुछ समय पश्चात उन नेमि प्रभु की प्रतिमा को वेदिका के मध्य विधि विधान सहित रखवा दिया जाता है। लोगों की परमश्रद्धा उन्हें धनधान्यपूर्ण बना देती है। जो उस प्रतिमा की वास्तविकता का अनुभव करते हैं। धन्य हैं वे धन्य हैं, जो दोष उत्पन्न करते। मणि, स्वर्ण आदि को भी काँच की तरह बनवा देते हैं।
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समल-वद-विहाणा तावमूले पविट्ठा मुणिवर-तवसेणा मुक्ख-मग्गं परूवे। धरिद धर-सुणाणं सत्थ सज्झाय सुत्ते
कधिय जिण पमाणं भासदे सावगाणं॥72॥ वे सभी मुनि, मुनिवर व्रत विधान से (नियम से) तप में प्रतिष्ठ तप की सेना (तपस्वियों के योद्धा) मुनिमार्ग की मुख्यतः का निरूपण करते हैं वे शास्त्र स्वाध्याय के सूत्र में संलग्न ज्ञान को महत्व देते हैं। वे जिनकथित प्रमाण को श्रावकों के लिए समझाते हैं।
॥ इति सत्तम सम्मदि समत्तो॥
सम्मदि सम्भवो :: 131