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अट्ठम-सम्मदी दुग्ग चाउम्मासो 1980
अपुव्व पहावी दुग्गो वि णामी
किं रण्ण गाम-पुर-सीदय-उण्ह खेत्तो तावं तवे इध मुणेति अयस्स-तावो। भूगब्भ-छिण्ण-बहुखिण्ण-जणेसुमज्झे
दुग्गे पवास-चदुमास-अपुव्व-शंदे॥1॥ तपस्वियों के लिए क्या अरण्य, क्या गांव, क्या शीत या क्या उष्ण सभी एक से होते हैं। फिर यहाँ अयस्कताप यंत्र (लोह ताप यंत्र) ताप पर तपाते हैं ऐसा सभी मानते हैं। यहाँ भूगर्भ को छिन्न-भिन्न करने वाले लोगों के मध्य में दुर्ग प्रवास का चातुर्मास अपूर्व आनंद को उत्पन्न करता है।
अस्सीइ उण्ह-थल-णग्ग-मुणीस-संघो मेहक्किवा कि अणुकूल-तवप्पहावो। भासेज्जदे हु जण अच्छरि सड-सम्मा
खग्गे हु सुत्त उवएसय पुण्ण खुल्लो॥2॥ सन् 1980 में जब स्थल उष्ण था, तब मुनीश का संघ मेघों की कृपा से भी तपन में अनुकूल वातावरण पा लेता था। जहाँ सच्ची श्रद्धा है तो लोग आश्चर्य पूर्ण कथन करेंगे ही। यही पर सूत्र उपदेश में पूर्णसागर क्षुल्लक आगे आते हैं।
132 :: सम्मदि सम्भवो