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पहावी संकप्पो
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तत्थे पणागर-सिहोर-बहोरिवंदं चित्तं इकस्सगजिणं पहुसंतिमुई। जत्थेव वाकलपुरे परिपत्त संघो
एगो विदी पडिमधारी जणो पवुत्ते ॥63॥ यहाँ से पनागर, सिहोरा एवं बहोरीबन्द को प्राप्त हुए आचार्य संघ चित्ताकर्षक प्रभुशान्ति की मुद्रा के दर्शन करते हैं। यहाँ से वाकल जाता है संघ, तब एक व्रती प्रतिमाधारी व्यक्ति कहता है।
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हंणो गिहेज्ज पडिमं जल-इच्छरत्ती वासे हु वास-उववास किदा हु मादा। आहार विग्घ रहिदो जदि जाइएज्ज
चत्तेमि णीर रयणीइ तदेव अज्ज ॥64॥ मैं रात्रि में जल लिए बिना नहीं रह सकता था, इसलिए प्रतिमा नहीं ली, माता जो के उपवास पर उपवास हो गये तब मैंने संकल्प किया यदि माताजी के आहार निर्विघ्न हो गये तो में रात्रि में जल नहीं लूंगा। आहार निर्विघ्र हुए। मैं भी दृढ़ प्रतिज्ञ हुआ। भत्ति-पहावो
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आराहएज्ज पहुसिद्धगुणाण भत्तिं दालिद्द खीण सयमेव भवे हुए लोए। सोहग्ग मंगल णिहीइ सुपत्त-अज्ज
सेट्ठाणि चाग महिलाउ सेट दाणं ॥65॥ सिद्धचक की आराधना और उनके गुणों की भक्ति दरिद्र होने पर भी लोक में बहुत कुछ दे देती। सेठाणी के त्याग से सौभाग्य के मंगल सूत्र के सूत्र खोई हुई अन्य निधि भी प्राप्त हो गयी। यह महिलाओं का आदर्श उत्तमदान की ओर ले जाता है।
66 बाकल्लए मह-महा दुव दिक्ख जादि काटणि उच्छव दिवे पउमो जगण्णे।
सम्मदि सम्भवो :: 129