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करोड़ मुनिराजों के स्थल सिद्धक्षेत्र सोनागिर को प्राप्त हुए । आचार्य शुभचन्द्र के पदों से यह क्षेत्र स्वर्ण को प्राप्त हुआ था इसलिए यह सोनागिरि है ।
भिंडचाउम्मासो
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सोणा णारियलकुंड-झुणिं च सेलं अट्ठेव सत्त-चदुमास पुरे हु भिंडे | कुवेदि मंगल तवेण सुझाण-पुव्वं सेट्ठीजणेहि सिहरेण सुपण्ण-पण्णं ॥46 ॥
सोनागिर में नारियल कुंड एवं बजने वाले पत्थर हैं। इसके बाद संघ 1978 के चातुर्मास को भिंडनगर में करते हैं जो उत्तम ध्यान और तप की मंगल कामना से पं. शिखरचंद्र एवं श्रेष्ठीजनों के साथ पूर्ण होता है।
णिम्मल्लो णत्थि तुझं
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सामाइगं परिसमत्ति - सुचिन्तसूरी चिट्ठेज्ज एग धणिगो पवदेदि तं च ।
मे गेह-चोरिय-बहुल्ल हवे असीसं दाएज्ज पत्त धण-पत्त कुणेज्ज दाणं ॥47 ॥
सामायिक परिसमाप्ति के पश्चात् चिन्तनशील सूरी बैठे ही थे कि एक धनी व्यक्ति कहता मेरे गृह में बड़ी चोरी हुई। वह आशीष लेता, फिर धन मिलने के पश्चात् दान दूंगा ऐसा कहता है ।
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आसीस- साहु- सुह-सूचण - भावणं च पत्तेदि चोरि-धणं ण कुणेदि दाणं ।
सत्तं दिवंतरपुणो अहिचोरि- जुत्तो णो पत्तज्ज धण-धण्ण - सुखिण्ण - देहं ॥48 ॥
वह शुभवचन, साधु के आशीष से चोरी गये धन को प्राप्त कर लेता, पर दान नहीं करता, उससे सातवें दिन पुनः चोरी हो जाती है । तब अति दुःखी धन-धान्य के क्षीण होने पर होता है ।
124 :: सम्मदि सम्भवो