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सेयं फलं च अणुलाह-पसण्ण-धी सो
जोदी-सरूव-सददं च पगास-हेदुं ॥3॥ वे आचार्य श्री प्रसन्नधी श्रेयफल के लाभार्थ सदा-ज्योति स्वरूप अष्टकर्मो से विकल भी सन्मति के ज्ञानाम्बु रूप अमृत हेतु जगत् के ईश जगदीश को नमन करते
पीऊस-वाहिणि-सियाद-वए हु रत्तो सव्वण्हु-थोद थवणे भय-दुक्ख-णासो। संबुद्धि सम्मद इमो दुरितादु दूरं
णिण्णेयदे लिहदि सारद सार-सुत्तं ॥4॥ ये संबुद्धि हेतु सन्मति पीयूष वाहिनी स्याद्वाद वचन में रत सर्वज्ञ की स्तुति एवं स्तवन में लीन भय तथा दुःख नाश हेतु शारदा के सार सूत्र अपनी बुद्धि में लिखते और उसी के अनुसार निर्णय करते हैं।
झाणे रदो हु परिमुंचदि अट्ट-रोई आणा-विवाय-विचयं च अवाय-झाणं। संठाण-धम्म-विचयं सुह-दायगं च
मण्णेज्ज एस अणुचिन्तदि जुत्ति तच्चं॥5॥ आ. सन्मतिसागर आर्त रौद्र को छोड़ते। वे आज्ञा, विपाय, अपाय और संस्थान विचय की ओर अग्रसर सुखदायक तत्त्व युक्तियों के सूत्रधार की आज्ञा मानते और तत्त्वानुशीलन करते हैं।
जेणप्पगार जिण-धम्म सुबिद्धि हे, झाए अवायविचयं च सुहासुहं च। भोगे विवायविचयो अणुसीलदे सो
दुक्खं सुहं च अणुचिन्तदि संठए हु॥6॥ जिस किसी प्रकार से जिनवृद्धि हेतु अपाय विचय को ध्यान में लाते हैं। वे शुभ-अशुभ भोगों में विपाक विचय का अनुशीलन करते हैं। सुख-दुःख रूप संस्थान पर दृष्टि रखते हुए धर्म ध्यान करते हैं।
112 :: सम्मदि सम्भवो