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सूतक का और अशुद्धि का उपदेश दिया और यह भी कहा जो विषय कषायों से मुक्त जन उत्तम विधि को करते हैं। वे परम लाभ को प्राप्त करते हैं। बीए हु चाउमासो
अस्सिं पुरे विदिय चादयमास-जादो देसेज्ज देस अणुदेस अहिंस मुल्ले। सेदे दिगंबर-मुणीहि जणाण सव्वे
छाइत्तरे भगिणि-णेमि सुपण्ण-भद्दो ॥29॥ 1976 के चातुर्मास में कोलकत्ता नगर में द्वितीय किंतु अद्वितीय चातुर्मास हुआ। इसमें श्वेताम्बर एवं दिगम्बर मुनिवरों द्वारा अहिंसा-मूल्यों पर प्रकाश डाला गया। इसी चातुर्मास में भगिनी नेमिमति, प्रज्ञसागर एवं भद्रसागर भद्र बने (दीक्षित हुए।)
30 पज्जुस्सणे चरमदिण्ण इगा हु इत्थी झाणत्थ जोगि पुरए सिद आरदिं च। रत्तिम्हि मज्झ दिव-दीवजुदेण तं च
दंसेदि वे हु खण-पच्छ-अदंस-भूदा ॥30॥ पर्युषण पर्व के अंतिम दिन एक स्त्री ध्यानस्थ योगी के सम्मुख रात्रि के मध्य जलते दीप युक्त आरती को संपत देखता है। वह दो मिनट तक दिखती फिर अदृश हो जाती है।
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अच्छेरअं पडि ण भासदि किंचि सूरी मज्झे जणाण परिदसण-वाग-गुंजे चादुस्समास तव-णिट्ठ-गुणेहि जादो
अग्गे चरेदि गुरुणो हु अणत्थ-घट्टे॥31॥ परिदर्शन करते सभी लोगों के वचन आश्चर्य के प्रति होते, पर आचार्य सन्मतिसागर कुछ भी नहीं बोलते। चातुर्मास तपादि गुणों से सम्पन्न हो जाता। गमन करते गुरु के सम्मुख अनर्थ घट जाता है।
सम्मदि सम्भवो :: 119