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18 तित्थस्स वंदण-तवं कुण णाण-झाणं मादूजया भगिणि-विट्ट-सुदिक्ख-भावं। णेमीमदी णियमए गुरुतच्चलाहं
मेणा वि बहिरदि संघ-सदा हु अग्गी॥18॥ तीर्थ की वंदना, तप, ज्ञान एवं ध्यान को प्राप्त आचार्य श्री के दर्शनार्थ मातुश्री जयमाला, बहिन विट्टो आती। बहिनजी दीक्षा को प्राप्त नेमिमति नियम से गुरुज्ञान एवं तत्त्वचर्चा को महत्व देती है। इधर संघ में अग्रणी ब्रम्हचारिणी मैनावाई हुई। रांची
चोहत्तरेणयर-रांचि रचेज्ज पोत्थं सो वण्णजादि धरमो बहुमुल्ल-जादि। अत्थेव अक्खि वरसल्लय-साहू एगे
मुत्तावरोह उपचार बहुत्त सच्छी॥19॥ आचार्य श्री का 1974 का चातुर्मास रांची में होता। यहाँ एक पुस्तक वर्ण जाति धर्म लिखी यहीं पर एक साधु की अक्षि वेदना पर शल्यक्रिया कराना पड़ी, पर मूत्रावरोध का उपचार वैद्य से कराया तब वे स्वस्थ्य हुए।
20 णाणी गुणी इगजणो जल दव्व-णेत्तू आगच्छदे हु चदु-संझ-सुसुत्त-पाढे। हं भोयणं च कुणएहिमि पूय-किच्चा
धण्णो तुमं असण-पुव्व-कुणेसि पूयं ॥20॥ एक ज्ञानी संध्या के चार बजे स्वाध्याय के समय जल और द्रव्य लेकर आता है। वह कहता मैं अभिषेक पूजन करके भोजन [गा तब आचार्य श्री ने कहा तुम धन्य हो जो असन के पूर्व पूजा अभिषेक करते हो। कोलकत्ता
भव्वादिभव्व-इग-कोडिय माणवाणं सो कोलकत्त-णयरी ववसाय-केंदो।
116 :: सम्मदि सम्भवो