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वे आचार्य श्री लवण, मीठा आदि के त्यागी एक माह पर्यंत मूंगफली को आहार में लेते हैं। उन्होंने तैल, दहि का क्रमशः त्याग किया। आहार में दूध लेते, वह भी इस चातुर्मास में त्याग कर दिया।
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वीरा सुपासमदि दिक्ख इधेव जादि पुण्णे हुवासचदु टुंडल सीदलस्स। दिक्खामुणिस्स पढमो परणंद दाई
विंसे हु सूरि पण-णिण्णु समाहि-सूरिं15॥ वीरमति एवं सुपार्श्वमति की दीक्षा मथुरा में हुई। चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् टूंडला में शीतलसागर की प्रथम मुनि दीक्षा आनंदपूर्वक हुई। बीसवें वर्ष में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित आचार्य सम्मेदशिखर जी में 1998 में समाधि को प्राप्त हुए।
16 सोरीपुरे मिलवदे सिरि-संभवो वि संघो फिरोजय-पुरे मुणि विण्हु-दिक्खा। कंता-णिवेदयदि इम्मरदीइ फत्ते
पायच्छिदे दु उववास-गणी कुणेदि॥16॥ सौरीपुर (मथुरावर्ती नगर) में संभवसागर का मिलन होता है। संघ फिरोजाबाद में मुनि विष्णुसागर की दीक्षा होती है। कंता देवी फतहपुर में विनोद में इमरती आहार में खिलाने का कहती है तब आचार्य सन्मतिसागर वहाँ प्रायश्चित में उपवास कर लेते हैं। सम्मेदचाउम्मासो
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संकप्प-सीलमुणिराय इधं च पच्छा सम्मेद-पत्त-अणुगम्म-चरंतमाणे। तेसत्तरे चदुयमास इगेव अटे
तित्थस्स वंदणय मूंग उसेव णीरं॥17॥ आचार्य संकल्पशील थे। वे चलते-चलते यहाँ सम्मेदशिखर जी में मूंग और उष्णोदक के सेवी 108 तीर्थवंदना को 1973 के चातुर्मास में महत्व देते हैं। ये गतिशील अनेक ग्रामों में विचरण करते हुए जब यहाँ आते, तभी से।
सम्मदि सम्भवो :: 115