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सुद-सुर-गुरु भत्ति सव्व भूयाणुकंपं थवण-णियम-दाणं णिंद भावाविरत्तं। मणसि-थिर सुणाणं पण्ण-वंताण संतं।
कहिद-हिद गुणाणं धम्म झाणं च अस्थि॥ देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति, सभी प्राणियों पर करुणा, स्तवन, नियम, दान युक्त, निंदा भाव से रहित, मन में स्थिर ज्ञान, प्रज्ञावंतों को शान्त बनाना एवं कथित गुणों के लिए जो हितकारी मानता है, उसका धर्मध्यान है।
सुत्तत्थ-मग्गण-महव्वद-भावणाए पंचिदियाण समणं च दयं च भूदे । मोक्खस्स मग्ग-समिदिं तय गुत्तिं-गुत्तं
धम्मे रदो हि अणुपालगधम्म झाणं॥8॥ सूत्रार्थ, मार्गण, महाव्रत, भावना, पंचेन्द्रियों का शमन, प्राणियों पर दया, मोक्ष के मार्ग, समिति, तीन गुप्ति गुप्त जो धर्म में रत एवं धर्म का पालक होता है उसका धर्मध्यान है।
9 संसार-कारण-णिवारण-तप्परो जो सुद्धप्प तच्च परमत्थ पगासणत्थे। दक्खो हवे मद-खए तव जोग जुत्तो
तस्सेव झाण परमो अदि सुक्कझाणं ॥७॥ संसार के कारणों के निवारण में तत्पर जो शुद्धात्म तत्त्व, परमार्थ के प्रकाशनार्थ में दक्ष होता जो मदक्षय में लीन सदा त्रियोग युक्त होता है, उसका भी ध्यान परम शुक्ल ध्यान होता है।
10 णिव्वाणभूमि-सुद-चिन्तण-अप्पपेम्मी सिद्धंत सागर-णिमग्ग-तवो ह कम्मी। जो वीदराग परमेसर मग्ग धम्मी
अथिथि आइरिय सम्मदि सम्मदी हु॥10॥ जो वीतराग परमेश्वर के मार्ग के धनी हैं, जो सिद्धांत सागर में निमग्न तपस्वी निर्वाण भूमि के प्रति श्रद्धाशील श्रुतचिन्तन में लीन, आत्मप्रेमी आचार्य सन्मतिसागर तो वास्तव में सन्मति हैं।
सम्मदि सम्भवो :: 113