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एक दिन गुरु जिन बिंब की अंक में बैठे हुए सर्प को देखते हैं, वह उनकी अंगुलि पकड़ लेता है तब भी वे तपस्वी तप- ध्यान में स्थित सामायिक में बैठ जाते, तब विषधर का विष समाप्त हो जाता है।
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तावे तवस्सि विस-कम्म-णियं ण कुव्वे जोगादु सो वि खलु खीयदि किं विचिन्ते । इत्थेव कित्ति - गुरु जाद-सुसेट्ठ सत्थं गोट्ठी तवादि विहि पंत समत्तए सो ॥14 ॥
यह सत्य है कि तपस्वी के तप में विष अपना प्रभाव नहीं दिखलाता है । उसमें भी योग से युक्त मुनि क्या उस योग तप से उसे क्षय नहीं करते ? विचार कीजिए ! यहाँ पर ही आचार्य महावीर कीर्ति का स्वास्थ ठीक हो गया । यहाँ गोष्ठियाँ, तपाराधना आदि के विधि विधान होते हैं और चतुर्मास समाप्त हो जाता है ।
मांगी तुंगी चाउम्मासो
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अत्थेव मल्लि - गुरु-पाद-सलेह - भावे आगच्छ्दे अदि पकंपय-सीद-काले । झाणे णिमग्ग-मुणिमल्लि - सुसेव हेदुं सो सम्मदी पडिदिणं विणिवेद सच्छं ॥15 ॥
यहाँ मल्लिसागरजी सल्लेखना भाव से आचार्य महावीरकीर्ति के पास कड़कड़ाती सर्दी में आए। वे ध्यान में लीन मुनि मल्लि सुसेवा को प्राप्त हुए । सन्मति सागर ने प्रतिदिन सेवावृत्ति से स्वास्थ्य लाभ की कामना की ।
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संघ जदा गमण इच्छगदो हु अण्णे डीगणाण मणसे इध णो अभाव जाणेविण विहरज्जदि जत्थ तत्थं णीहि णीर घणमेह तदेव कुव्वे ॥16 ॥
श्रेष्ठीजनों के मन में इधर ठहराने के भाव नहीं थे, ऐसा जानकर संघ जैसे ही अन्यत्र गमन की इच्छा करता वैसे ही विहार के समय घनघोर मेघ उस स्थल को नीर से पूर्ण कर देते हैं ।
104 :: सम्मदि सम्भवो