________________
कक्खे विराजिद जया इम पस्समाण हत्थेण पुत्त सिरए अणुणेज्जदे सा। सीदं च भुल्लि सुद-जोण्हय चंद तुल्ला
जादा मदी परम सम्मदि धारगा सा॥3॥ जयमाला प्रसूति कक्ष में स्थित इसे देखती हुई हाथ से पुत्र के सिर पर रखती है। वह तब शीत (सर्दी) भूलकर सुख रूपी चन्द्र की चांदनी युक्त हो जाती है। वह स्वयं मतिमान मानो परम सन्मति की धारक हो गयी हो ऐसा प्रतीत होता था।
सीदंस-भूद-रवि-णदिद-तेज-पंजं णेदूण संत-किरणाण पसंत-आभं। सव्वत्थ देसदि पदेस-पदेस-पंते
सागार गारपरिसं अणगार मुत्तं॥4॥ रवि तो ऐसा आनंदित हुआ कि वह अपने तेज पुज्ज को शीतांशु कर लेता है। वह इस संत की किरणों की प्रशांत आभा को लेकर संदेश प्रत्येक भाग में देने लगता है। तो ठीक है गृह परिषद रूपी गारे-कीचड़ को छोड़कर यह अनगार के मूर्त रूप को प्राप्त होगा।
सच्छे णहे णहचरा चरएंति अत्थ णो पस्समाण तणयं भयमाण माणं। जेएज्ज चट्टग गदी अणुपेक्खणं तं
ते अंगणे चुटचुटं कुणएंति मासे ॥3॥ यहाँ स्वच्छ नभ में नभचर उसे नहीं देखते हुए भी उड़ान युक्त उसे सम्मान देते हैं। वे चटग-चिड़ियाएँ चुटचुट करती आंगन में मानो उसे देखने का ही कथन कर रही हों।
णो कोवि तित्थवर-तित्थ-णरिंदलाला णो को वि सोम्म-सदणेग णिवास भूदो। बालो हु सेट्ठि-ससि कंति पियार लाला
दाएज्जदे णह धराइ जणाण संती॥6॥ यह बालक कोई तीर्थकर या तीर्थ प्रवर्तक या नरेन्द्र का लाला नहीं था, न कोई
सम्मदि सम्भवो :: 55