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उत्तुंग-गेहजिण-मंदिर-तित्थ-तित्थं वंदेज्ज सम्मदिमुणी दुव-छत्त-संघे। मग्गे बिलाडि दहिणादु हु वामएज्जा
छिक्केज्ज मेह-वरिसादु हवेज्ज अत्थ॥3॥ यहाँ उतुंग जिनग्रहों में तीर्थकरों की प्रतिमाएँ थीं, सन्मतिसागर दो छात्रों के साथ वंदनार्थ जाते, मार्ग में दाएँ से बाएँ बिल्ली रास्ता काट गयी। छींक भी हुई और थोड़ी ही देर में मेघों ने अतिवृष्टि की अर्थात् बादल फट पड़े, जिससे चारों ओर पानी पानी हो गया।
मत्थेग-सिंचिणविहिं अणुपच्छ-अत्थ अज्झप्प जोगि मुणि कुंदय-कुंद-अहिं साहस्स ते हु फुड-उण्णद-खेत्त पंतं
तित्थेव-वंदणविहिं कुणएंति सव्वे॥4॥ महामस्तकाभिषेक विधि के पश्चात् हुम्मच में अध्यात्म योगी मुनि कुंद कुंद की कुंदाद्रि जो तीन हजार फुट ऊंची थी, उसे प्राप्त हुए। यहाँ सभी तीर्थेश वंदन विधि को पूर्ण करते हैं। वेज्जाविच्चसंलग्गो
सत्तेग-छक्कचदुमास-समापणंच किच्चा हु सम्मदि मुणी णव दिक्खसिस्सं। सिक्खेदि संभव-सुकुंथय-णेमि-साहुँ
वेय्याइविच्च गुरु-आण इमे हु अग्गी ॥5॥ सन् 1967 को चातुर्मास समापन करके सन्मतिसागर नव दीक्षित संभवसागर कुंथुसागर एवं नेमिसागर को सिखाते हैं। ये वैय्यावृत्य में एवं गुरु आज्ञा में अग्रणी
कित्ती गुरू अदि हु रोग-असाद-जुत्तो जादो तदा भिसग-पत्थ-विहीइ रोगा। मुत्तो सरीर-बलहीण-मुणीस-अज्ज चल्लेज्ज ठाण-इणमो हु णिरोग-जादो॥6॥
सम्मदि सम्भवो :: 101