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कारेकले तिविस-बिंब-जिणालएसुं उत्तुंग-बाहुबलि-वेचदु फुट्ट बिंबं। माणस्सथंभ-पहुपारस सीदलं च
णेमि भडारग-सुठाण मुणीण दंसे॥47॥ कारकल में 300 फुट ऊंची पहाड़ी पर जिनालयों में बाहुबली के 42 फुट ऊंचे जिनबिंब, मानस्तंभ, प्रभु पार्श्व, शीतलनाथ, नेमिनाथ का दर्शन करते हैं। वहाँ भट्टारक और मुनियों के बिंब स्थान को भी देखते हैं।
48 जत्थेव गच्छदि स सम्मदि सागरो वि झाणं तवं च चरणं अणुचिंतणं च। सिप्पीण सिप्प कल-कित्ति विचारणत्थं
कुव्वेदि अज्झयण-सुद्ध-विसुद्ध-अप्पं ।।48॥ मुनि सन्मतिसागर जहाँ भी जाते वहाँ ध्यान, तप, चारित्र एवं अनुचिंतन को महत्व देते हैं। वे शिल्पियों की शिल्पकला की कीर्ति के विचारार्थ लगे रहते हैं। और वे शुद्ध, विशुद्ध आत्मा का अध्ययन करते हैं। उपेन्द्रवज्रा
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सदा सुझाणे तव-णाण-जोगे, पसण्णभूदो समदिं च गुत्तिं।
जिणिंद-वाणि गुणचंद-भागं, पमाणभूदो चरदे चरित्तं ॥9॥ वे सन्मतिसागर प्रसन्नभूत, प्रमाणभूत सदा ही उत्तम ध्यान में लीन, तप, ज्ञान एवं योग में रत समिति, गुप्ति, जिनेन्द्र वाणी रूपी गुणचंद (चंद्र रूपी किरणों की तरह) भाग चरित्र की ओर अग्रसरं होते हैं। उपजाति
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पीऊस-तुल्लं सुद-सत्थ-अंगं, चंदं इवंसुं समसीदलंसुं।
जिणंसु-पज्जंत उपेच्चु एसो, सुतित्थ-तित्थं णमिणम्मएज्जा॥50॥ ये सन्मति सागर तो प्रत्येक तीर्थ पर वंदना करते हैं वे जिनांशु पर्यंत को प्राप्त चंद्र की तरह शीतल किरणों की प्राप्ति के लिए पीयूष तुल्य श्रुत-शास्त्र रूप अंगागमों की ओर अग्रसर रहते हैं।
98 :: सम्मदि सम्भवो