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उत्तुंग प्रतिमा तपस्वियों एवं सौम्य सन्मतियों को आकर्षित करती हैं। तभी तो मोटा जनसमूह संघ युक्त पादमूल को प्राप्त हुआ।
40. तित्थं च तित्थ-गद-वंदण-तित्थ-हेदूं गच्छेदि बिंझगिरि-मूल-पदेस-भागे। पत्तेज्ज सागद-भडारग-भट्ट-भट्टे
सो सम्मदी वि विजयामदि-अज्जिगा वि॥10॥ मुनि सन्मतिसागर एवं आर्यिका विजयामति भी एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ की वंदना कर इस संसार से पार होने के लिए ही विन्ध्यगिरि के मूल प्रदेश भाग में (श्रवण वेलगोल की तलहटी में) पहुँचे। भट्टारक अपने भट्ट उत्तम शिष्यों के साथ स्वागत करते हैं।
पत्तेग-आगद-तवी मणुजा वि जत्ती कल्लाण-णीरछसदे अणुसीढि-मग्गं। ते दोडुवेट्ट-सिहरं अणुगच्छएंति
साहस्स-वासपडिमं पडिदंसएंति॥1॥ प्रत्येक आगत तपस्वी एवं यात्री जन कल्याण नीर (सरोवर) से 600 सीढ़ियों के मार्ग को पार करते हैं वे दोडुवेट्ट शिखर पर पहुँचते हैं वहाँ पर एक हजार वर्ष की प्रतिमा (57 फुट उच्च बाहुबली की प्रतिमा) का दर्शन करते हैं।
42 णीले हुरम्म-गगणे अणुफास-माणं पासाण-बिंब-अदिरम्म-पुणीद-भावं। दाएज्ज अज्ज मणुजाण तवं च झाणं
कालल्लदेवि जणणी पमुहा हु पेण्णो॥42॥ नील गगन को छूने वाला पाषाण निर्मित बिंब (प्रतिमा) अतिरम्य है जो आज भी तप ध्यान को मनुष्यों के लिए प्रेरणा प्रदान करता है। यह प्रतिमा (मैसूर नरेश राचमल्ल के प्रमुख सेनापति चामुण्डराय की) मातुश्री कालकदेवी की प्रेरणा से बनवाई गयी थी।
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सो गोम्मटेस-पहु-पाद-विणम्म भूदो सिद्धत चक्कवरदी-सिरिणेमिचंदं।
96 :: सम्मदि सम्भवो