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वाली विद्या है) छन्द, प्रबन्ध कला में गति विद्या देती है । यह पराग (स्वर - व्यंजन रूप राग) गुरु विद्या गति शील होती है । आभूषणादि कमनीय राग कला में सहकारी हैं, पर वैराग्य कला में नहीं ।
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सुत्ते स संति-ससि-सेस - विसेस - सोहे जम्मं जरं च मरणं जमराज-राजे ।
वित्तं महव्वदणु-धम्म दहाणु सीलं कुव्वेज्ज पेह अणुपेह सुभावणाए ॥17॥
स- तो सूत्र है, श- शान्ति, शशि है, श ष दोनों शेष - विशेष में सुशोभित है। जन्म जरा और मरण को 'ज' धारण किए हुए है। य-यमराज की पहचान है । व वृत्ति चरित्र महाव्रत, अणुव्रत, धर्मदश के अनुशीलन की ओर ले जाते हैं । इसलिए अपने प्रेक्षा में सुभावना का ( द्वादशानुप्रेक्षा का अणुप्रेक्ष) (अनुचिन्तन) करें । बारंबार चिन्तन को अपनी बुद्धि का आधार बनाएँ ।
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विज्जालए पढदि सम्मदि धारर- जुत्तो कज्जे दो वि ववसायिय-बोध-राजा । साकाइहारि-सद-चार - गुणी विदंसे
ओमं च बाल-णिय तुल्ल पियं कुणेदि ॥18 ॥
विद्यालय में विद्याध्ययन सन्मति हेतु पढ़ता है। वह जब व्यवसाय कार्य में रत होता तब शाकाहारी बोधराज को सदाचारी गुणी देखता है। वह ओम को बालक की तरह प्रेम करता है ।
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ताए पिया सदद कोह जुदी कुवाची झल्लेदि तम्हि विणयो हु सुसेव भावी ।
कुक्कुट्ट सद्द मरणं च इमस्स वाए बोहो वि बोहदि भवे हु भवेज्ज णिच्वं ॥ 19 ॥
उस बोधराज की पत्नी क्रोधी, कुवाची ओम पर चिल्लाती, तब भी विनय युक्त सेवाभावी बना रहता है। उसके हृदय में मुर्गे की वेदना थी, तब बोधराज समझाते हैं - ऐसा इस जगत में सदैव होता रहता है।
सम्मदि सम्भवो :: 69