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बोए हुबंहिलिवि-बह-सु-अप्प-बंह आलेहदे परमबह-सरुव-ओमं. तस्सिं समाहिद जणो हु विरागभावं
पत्तेज्जदे गणहराण ससुत्त-सुत्तिं ॥13॥ लोक में ब्राह्मी लिपि तो ब्रह्म रूप है, वह आत्मब्रह्म, परमब्रह्म के स्वरूप एवं ओम को अभिव्यक्त करती है। उसमें समाहित जन गणधरों के सूत्र, सूक्ति एवं विरागभाव को प्राप्त होता है।
जस्सिं रमेदि अ अरहे असरीरि-अप्पे आए दु आइरिय चारु चरित्त चित्ते। इत्थेइ ई वि इरिसं उ ऊमाइ ऊहे
ए ऐ इरावयइ ईसर-ओइ ओमो॥14॥ जब प्रारंभिक समय में 'अ' में अरह, अशरीरीर (सिद्ध) रूप आत्मा में प्रवेश करता है। 'आ' तो आचार्य की उत्तम आचार संहिता चित्त में लाता है। इ-इसलोक
और 'ई' परलोक 'उ' तो उमा का पाठ पढ़ता है 'ऊ' में ऊहा चिन्तन के स्वर होते हैं। ए ऐ में ऐश्वर्य है ऐरावत है और ओ-ओ-ओम रूप हैं।
15 सव्वे हु विंजण-गदी अभिविंजदे हु मंगिल्ल-मोत्तिग-मणी गणि-हार-कंठी। विज्जा मदी पमुह-बुद्धि-पही य पण्णा
आणावणी अरह-अत्त सुही सुकण्णा ॥15॥ सभी व्यंजनों की गति मांगलिक, मौक्तिक, मणि युक्त हार का कंठाधार है। यही विद्या मति प्रमुख, बुद्धि, प्रधी, प्रज्ञप्रज्ञी, प्रज्ञा, आज्ञापनी, अरह, आप्त की सुधी सम्यक् कन्या (सरस्वती) है।
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वेरग्ग-चारुचरणे सुउमालि-विज्जा छंदे पबंध-कलणे गदि सील-विज्जा। लावण्ण-दित्त-कुमराण पराग-विज्जा
आभूस-राग कमणिज्ज कले ण विज्जा॥16॥ वैराग्य के चारुचरण में सुकुमारी विद्या है (कौमारी दृष्टि को सुरक्षित करने
68 :: सम्मदि सम्भवो