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मत्थेज्ज णेज्ज विमलं च मयूर-पिच्छिं मेहाण दंसण-समो हु मयूर-मण्णे। णच्चेज्ज अप्पहिद-आसिस-पत्त-एसो
किं किं ण चिन्तदि मणे भव-पारणावं॥38॥ मस्तक पर विमल (निर्मल) मयूर पिच्छी को पाकर मेहों के दर्शन के समान इसका मयूर मन नाचने लगा। भव पार लगाने वाली इस नाव को प्राप्त यह आत्महित के आशीष युक्त क्या क्या नहीं चिन्तन करता है?
39 संसारदो विरदमाणस-ताव लोए मझे गदो हु उवचार-पबंध-जुत्तो। डक्केज्ज-कूर-मणुजाण वि कूर-कज्जं
जाणेज्जदे सुदग णीर-पचक्ख-एसो॥39॥ यह ओम शूद्र जल का त्यागी डाकुओं के क्रूर कार्यों को भी समझता है। इधर संसार से विरत मानस ताप-मलेरिया से पीड़ित लोगों के मध्य उपचार प्रबंध में लीन हो जाता है।
40 दीणाण हीण-मणुजाण सुसेव-सीलो सव्वत्थ-संसजुद-अप्पहिदं च णिच्चं। सज्झाय-कुव्वगद-सील-तवं दिढेज्जं
कुव्वेदि अप्पदिढि-भाव चएज्ज भिच्चं ॥10॥ यह दीन-हीन मनुजों की सेवा वाला सर्वत्र प्रशंसा युक्त आत्महित हेतु स्वाध्याय करता हुआ शील एवं तप को दृढ़ बनाता है। फिर आत्मदृढ़ी भाव वाला यह भृत्य (नौकरी) छोड़ देता है।
41 जेट्ठो वरिट्ठ-अहियारि-सदा पवुत्ते धम्म कुणेहि उवचारय-कज्ज मुत्तो। होज्जा तुमंण हु पमण्णदि कंत केसिं
के मे जगे हु सयला हु भवादु मुत्ता।41॥ ज्येष्ठ-वरिष्ठ अधिकारी सदा ही बोलते रहते कि धर्म करो व उपचारशील के कार्य से मुक्त हो जाओ। वह ओम किसी की बात नहीं मानता और कहता इस जगत्
सम्मदि सम्भवो :: 75