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संसार-दुक्ख-परिवत्तण-दव्व-खेत्ते
थी-बंधु-भाउ-सयला पुढु अप्प-सुद्धे॥68॥ इस संसार में आयु, बल, सुख और संपदाओं को अनित्य कहा गया। जन्म, जरा, मरण और भय को अशरण। संसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप परिवर्तनशील है। स्त्री, बंधु, भाई आदि सभी आत्म-शुद्धता होने पर पृथक् हैं।
69 णाणं च दंसण-सरूव-इमो त्थि आदा एगो हु सासद-विसुद्ध-विराग-पुण्णो। एगत्तओ णवदुवार-मलादु जुत्ता
पुण्णादु पावसव आसवमूल-रूवो॥69॥ ज्ञानदर्शन स्वरूप यह आत्मा है। यह शाश्वत एक, विशुद्ध, विराग पूर्ण है, एकत्व युक्त है। यह व्यवहार रूप मल से युक्त है। इससे पुण्य पाव रूप कर्म का आस्रव होता है।
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गुत्तीइ पंचसमिदीइ वसादु णिच्चं सो संवरो हु तवसा हवदे हु णिज्जे। राजुप्पमाण-चदुउच्च इमो हु लोओ
बोही दया पमुहधम्मय-दुल्लहो त्थि ॥70॥ तीन गुप्तियाँ, पाँच समितियों के वश से जीव संवर और तप से निर्जरा करता है। यह लोक चौदह राजू प्रमाण ऊंचा है। बोधि, दया आदि धर्म भी दुर्लभ हैं।
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सम-समिद-दुबारं णिप्पवीचार-दव्वं किद-सुकिद फलाणं कप्प लोगुत्तराणं। सुह-मुणिवर-दिक्खे कम्म-बंधाणुणासं
दमण-पणय-इंदं संत सब्भव्व णंदं ।।71॥ इस तरह वे क्षुल्लक सम्यक् रूप शमित द्वार वाले, प्रवीचार रहित, दिव्य, उत्तम कृत फलों की कल्प के लोकोत्तर सुखद मुनिवर दीक्षा में ही कर्मबंधों का नाश, इंदिय दमन एवं अतिभव्य शान्त-आनंद मानते हैं।
सम्मदि सम्भवो :: 83