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सन्मतिसागर के शिर पर मानो वही छत्र का कार्य कर रहा था। उपसर्ग को प्राप्त सभी कर्म रूपी कृष्ण मधुमक्खियों के समूह आदिप्रभु की स्तुति करने पर शान्त हो जाती
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अस्सिं च सम्मदि मुणिम्हि विसेस-वाहिं मुण्णेविदूण उवयार-सुसावगेहिं। घीए कपूर-अणुलेव-सरीर-सव्वे
कीएज्ज सो अणुलहेदि अपुव्व-लाहं॥18॥ इन सन्मतिसागर मुनि के ऊपर विशेष व्याधि को समझकर श्रावकों द्वारा विशेष उपचार किया जाता है। घी में कपूर के मिश्रण रूप लेप शरीर के सम्पूर्ण भाग पर लगाया जाता है। उससे वे सन्मतिसागर मुनि अपूर्व लाभ को प्राप्त होते हैं।
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संघो वि बावणगजं अणुपच्छ-पंतं रटुं महं पडि हु अग्गसरो हु गाम। पत्तेदि सेंधवय-सोणगिरं धुलीयं
कोसंब माल मणमाड-सुचंद-खेत्तं॥19॥ संघ बावनगज के पश्चात् महाराष्ट्र की ओर अग्रसर हो गया। पुर, ग्राम, उपग्राम, सेंधवा, सोनगिर, धूलिया, कोसंब (कुसुम्बा), मालेगाँव, मनमांड एवं चांदवड़ आदि क्षेत्र को प्राप्त होता है।
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सो चागि सम्म-रस-झाण-णिमग्ग-जुत्तो मंगी सुतुंगि-जिण-तित्थ-सुवंदणत्थं। अज्जेव जत्थ सय-अट्ठ-सुदिव्व-मुत्ती।
णो अत्थि कूड-सिहरा अणु पुव्व-बिंबा ॥20॥ वे रस परित्यागी ध्यान में निमग्न रहते हैं। वे संघ सहित मांगी-तुंगी जिनतीर्थ वंदनार्थ प्राप्त हुए। आज 2017 में 108 फुट मूर्ति यहाँ स्थापित है। जो पूर्व में नहीं थी। यहाँ के शिखर अपूर्व बिंब वाले हैं।
- 21 तुंगेव तुंग करि-पत्थर-मंगि-तुंगी सो सिंखलाइ अणुबद्धय लिंग रूवो।
90 :: सम्मदि सम्भवो