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सर्वप्रथम आगम-आप्तवचन के रूप में निःसृत, गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध की गयी है उसमें बन्ध-प्रबंध से यह प्राकृत प्रकृति जन्य के जनों के लिए पीयूष अवश्य देगी ।
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पाइए वयणं सोच्चा, सुणिदूणं च पाइयं ।
वड्ढमाणो जणो एसो, बड्ढमाणं च अत्थए ॥98 ॥
प्राकृत में वचन समझकर उन्हें सुनकर प्राकृत की ओर अग्रसर होता ही है । यह प्राकृत में गतिशील भी वर्धमान के अर्थ में प्रकृतिजन्य प्राकृत थी ऐसी बुद्धि है
करता
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पाइय-पयडिं अत्थं, इच्छ- भावण- सड्ढए ।
किंचिणो सम्मदीजुत्तो, मुहरी कुणदे ममं ॥ 99 ॥
प्राकृत रूपी प्रकृति अर्थ की इच्छा, भावना एवं श्रद्धा से युक्त सन्मति रहित, मुझको कुछ मुखरी कर रहा है। 1
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सोदुं सद्दत्थ-कव्वं च, पुंसा पसीद पाइए ।
सम्मदीमह - आरामे, दए पवेस - सम्मदी ||100 ॥
शब्दार्थ सहित काव्य को सुनने के लिए प्रवृत्त प्राकृत में सन्मति हो । इस सन्मति रूपी महा आराम - उत्तम स्थान में प्रवेश हेतु आप सभी सम्मति दें और भो सज्जनो ! मुझ पर कृपा करें ।
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सादिसय-जुदाभत्ती, णादुं भवेज्जदे मदी ।
पाइए सुउमालाए, भासाए भासितुं गदी ॥101 ॥
आपके प्रति अतिशय भक्ति एवं बुद्धि जानने के लिए प्रवृत हो रही है। इसलिए मैं प्राकृत की सुकुमाल भाषा में कहने के लिए गतिशील हुआ।
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अदीदे भविचारित्ते, किं किं होज्जा ण जाणमि ।
पज्जुप्पण्ण- पमाणी तुं, सम्मदीतवसी तुमं ॥101 ॥
अतीत में और आगे के चरित्र में क्या क्या था अर्थात् पूर्व महापुरुषों ओर भविष्य में होने वाले पुरुषों का चरित्र क्या क्या था, मैं नहीं जानता हूँ। मैं वर्तमान का प्रमाणी हूँ आप सन्मति सागर तपस्वी हो ।
40 :: सम्मदि सम्भवो