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वीअ-सम्मदी तारग ॥ ॥ ॥ ॥ 5 = 13 वर्ण
पहु-आदिपहू जुअ-पाद करिज्जे गुरुआदि-सुदेसग-सम्मदि-किज्जे। णम सम्म-दिगंबर-दिक्खअ-लिज्जे
णमएमि तवस्सि-गणिंद-णरिंदं॥1॥ मैं प्रथम आदिप्रभु के युगल चरणों में नम्रीभूत हूँ। वे आदिगुरु हैं, वे आदि उपदेशक हैं वे सन्मति हैं। जिन्होंने उत्तम दिगम्बर दीक्षा को धारण किया उन सभी को नमन करता हूँ तथा तपस्वी सम्राट आचार्य सन्मति सागर को नमन करता हूँ।
2. वसंततिलका आगास-गंग-सम-णीर-पसंत-सच्छो चंदो समो अमिद-दायिणि-सोम्म-सोम्मो। णाणं च दंसण-वदी-तव झाण-सूरिं
कव्वे पबंध मदि बंधुदयो हवेज्जो॥2॥ जिनका चरित्र आकाश गंगा के नीर की तरह प्रशान्त एवं स्वच्छ है। चंद सदृश अमृत दायिनी अति सौम्य है। उन ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और ध्यान के सूरि को काव्य के प्रबंध में मति युक्त भवबंधवाला उदय प्रयत्न शील हो रहा है।
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णिम्मीलिदाणि कमलाणि पहाद-काले दित्तेस-दित्तकिरणेहि पफुल्लिएंति। राजेदि णीर-धवलालय-उच्च-भूदा अण्णाण-णिद्दि-जगि-माणुस-तप्पएंति ॥3॥
सम्मदि सम्भवो :: 43