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92 चेदप्पसाद-संभूदिं' अधूमो वि कुणेदि सो।
सव्व मंगल-संगाही, णिव्वेदिणिं तवो जगे॥2॥ जगत् में तप सर्व मंगल संग्राही है यह अधूम है। यह चित्त में प्रसाद, संभूति और निर्वेदिनी को लाता है।
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महागहिर-सद्देहि, महण्णवेहि राजदे।
संवेग जणणी एसा, जग-कल्लाण-कारिणी ॥3॥ यह संवेगजननी जन कल्याण करिणी कथा महाशब्द रूपी महार्णवों से गंभीर ही शोभित होती है।
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दिव्वा वि परमत्था वि, सम्मदी सम्मदी हवे।
गुणजुत्ता सदाणंदी, पुव्वसूरेहि णो भणे॥4॥ यह दिव्या, परमार्था सन्मति तो सन्मति गुणयुक्त है। यह सदा आनंद दायिनी तो है पर पूर्वचार्यों द्वारा नहीं कही गयी है।
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सुणेहि सज्जणा अज्ज, पाइय भास-भासए। ... इगविंस-सदीए वि, सुवण्ण-पाइयो इमो॥95॥
भो सज्जनो! आज इक्कीसवीं शताब्दी में प्राकृत-भाषा लिखी जा रही, कही जा रही वह भी उत्तमवर्ण प्राकृत उसे सुने एवं उस पर विचारें।
96 कहा-कहण-आरंभे, पाइए ण पइण्हु मे।
पाइय-कव्व-संबडं पाइए सम्मदी हवे॥96॥ कथा कथन के आरम्भ में मैंने प्राकृत में प्रतिज्ञा नहीं की, परन्तु प्राकृत-काव्य संवर्धनार्थ प्राकृत में सन्मति हो, ऐसी प्रतिज्ञा करता हूँ।
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पाइय-पयडीजण्णा, पीऊस-वाहिणी-इमा।
आगम-सुत्त-णिबद्धा, बंधाहिंतो पमुत्तए॥97॥ प्राकृत प्रकृति जन्य भाषा है, यह पीयूष वाहिनी है। यह आगम सूत्र में बद्ध इस संसार के बन्धनों से मुक्त कराएगी। काव्यपक्षे-यह पीयूष प्रदायिनी प्राकृत भाषा
सम्मदि सम्भवो :: 39