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कथा लोक में दिव्यकथा, दिव्यमानुषि और मानुषी कथाएँ हैं । यह दिव्य में उत्तम भावों वाली मानुषी कथा है। दिव्य मानुषी (देव और मनुष्य लोक) संबंधी नहीं है।
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अक्खेविणी अणुक्कूला, सम्मदिं च पवड्ढदे | विक्खेविणी पडिक्कूला, सम्मदिं च विखंडदे ॥81 ॥
आक्षेपिणी तो अनुकूल कथा - सन्मति को बढ़ाती है (बुद्धि बढ़ाती है ।) विक्षेपणी बुद्धि की हानि करती है ।
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उत्तम-फल-आणंद, बोह - उत्तम - दायिणिं ।
सम्मदीए पचिट्ठेज्जा, जो संवेदणि-पंथगो ॥82 ॥
सम्बेदिनी कथा संवेद - उत्तम ज्ञान, उत्तम फल के आनंद एवं उत्तम बोध की ओर ले जाती है। इसलिए सन्मति की ओर अग्रसर हों ।
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वेरग्ग-अंग भूदा वि, णिवेदिणी समी सुदी ।
सम्मदिं सम्मदिं अंगं, अणुसरेज्ज भो सुधी ॥83 ॥
जो वैराग्य अंगवाली समता एवं श्रुती है वह निर्वोदिनी कथा है । भो सुधि ! इसलिए उत्तम बुद्धि हेतु सन्मति को स्मरण करें ।
84
एसा कधा सु-आयारे, पवेसत्थं पवाहिणी ।
सम्मदी -दायगा सव्वे, सव्वेसिं हिद- अंगिणी ॥84 ॥
यह कथा उत्तम आचार में प्रवेश करने के लिए प्रवाहिनी - सरिता है। यह सभी को सन्मति दायक है । यह सभी के लिए हितांगिनी (प्रिया सदृश ) है ।
85
मणुजा - मणु-मंगाणी, मोणि- माणस - हंसिणी ।
अस्सिं माणव - आयारा, तवच्चाग-विरागिणी ॥85 ॥
यह मनुष्यों के लिए मनु- मननशील बनाने वाली है, आनंद देने वाली है । यह मौनि मान सरोवर की हंसिनी, तप-त्याग की विरागिनी है। इसमें मानवों की आचार संहिता है ।
सम्मदि सम्भवो :: 37