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काव्यानुशासन एवं व्याकरण कला से मंडित काव्य में मेरी प्रवृत्ति हो।
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तुम्हे कव्वाणु-मंताणी, कलाहिणी कलत्थिणी।
मिदुरस-रसायण्हू, कव्वत्थे सहिए रदे॥52॥ भो काव्यानुमन्त्राणि! आप कलाधिनी, कलार्थिनी, मृदुरस रसज्ञ काव्य के अर्थ में सहृदय रत होऊँ।
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एसा कहा पुराणत्थी, णत्थि त्थि अत्थदायिणी।
तिसट्ठि-पुरिसाणं च, णत्थि एहिग-लोगिगा॥53॥ यह कथा पुराण-कथा नहीं है। यह अर्थदायिनी विशेष प्रयोजन वाली नहीं है। यह त्रिषष्ठि श्लाका पुरुषों की कथा लौकिक या पारलौकिक नहीं है।
54 अस्थि स्थि सम्मदी दाई, सम्मदि-णायगस्स हु।
एसो तवसि-सूरी हु, सम्माडो सम्मदी मुणी॥54॥ सन्मति, सन्मति नायक उत्तम बुद्धि देते हैं। परन्तु तपस्वी सम्राट आचार्य सन्मति सागर एक मुनि हैं।
55 कव्व-रस णिमग्गाणं, णेगा-अणेग-विग्घया।
मिदुबंधे पबंधे हु, सप्प व्व वमणं कुणे॥5॥ काव्य रस निमग्रों के लिए काव्य में अनेकानेक विघ्र आते हैं। वे मृदु काव्य प्रबंध में सर्प की तरह विष वमन करते हैं।
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कुव्वेति जे वि कव्वाणिं, तेसिं जिंदविणिंदए।
कलुसिद पपुण्णेहिं, दुज्जणेहिं कलुस्सि हु॥6॥ जो भी काव्य कवि करते हैं, उनके काव्य की निंदा कलुषित प्रपूर्ण दुर्जनों के द्वारा कलुषित किए जाते हैं।
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कापरिसा किदे कव्वे, कालुस्स-केवलं ण हु। दंसेजेंति ण सुत्तीणं, माण-सम्माण-हीणगा॥57॥
32 :: सम्मदि सम्भवो