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मान सम्मान हीन कुपुरुष (दुर्जन) कृत काव्य में सूक्तियों को नहीं देखते हैं, वे केवल कलुषता ही देखते हैं।
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ते दोसी दोस बंधस्स, सव्वदा सव्व भंगणं ।
पस्सेति रसरीदिं णो, दूसिद- मग्गि - दुज्जणा ॥58 ॥
वे दोषी, दूषित मार्गी दुर्जन सदैव सर्वभंग को देखते हैं। वे दोष बंध के प्रबंध में रस-रीति आदि नहीं देखते हैं ।
59
तेसिं दुज्जण-दोसीणं, पुव्वे णो त्थु णमो णमो । सम्मदि-कव्व-बंधं च, सरदव्व पहाणुगं ॥59 ॥
शरद की तरह पंकहीन पथ का अनुगम तो सन्मति काव्य बन्ध को तभी होगा जब उसके दोषी दुर्जन जनों के लिए नमन न हो, इसलिए उन्हें पूर्व में नमन करता हूँ।
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सरदागमणे मग्गो, पंकविहूण- सुच्छगो ।
सर - सरिस णीरादी, णिम्मला सम्मदी सुधी ॥60 ॥
शरदागमन होने पर मार्ग पंकविहीन, स्वच्छ हो जाते हैं, सर सरसि जितने भी नीरादिस्थल हैं, वे निर्मल सुधी एवं सन्मति वाले हो जाते हैं
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सज्जणा सारदा मग्गी, सारस्सदा सुदंसगी ।
चंद व्व सीयलद्दाणी, विज्जुप्पहा - पदायिगी ॥61 ॥
सज्जन तो सारस्वत, सुदर्शकी एवं शारदा मार्गी होते हैं, वे चन्द्र की तरह शीतलता विद्युत प्रभा देने वाले होते हैं।
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सोम्मचंदोत्थि सोम्मो हु, समत्त - सम्मदी पही ।
ते ह विराग संदसी, रागीणं राग-मुत्तए 162 ॥
हु
सौम्य तो चंद्र है और सज्जन भी सौम्य, समत्व, सन्मति पंथी होते हैं । वे रागियों के राग से मुक्त विरागदर्शी होते हैं ।
63
मिगंकोय मिदूसोम्मो, जगे जणेहि भासिदो ।
अकलंको ण सोम्मोत्थु, सज्जणा सव्व- णिम्मला ॥63 ॥
सम्मदि सम्भवो :: 33