________________
प्रकट किये यह जाँच अधूरी ही रहेगी। अतः पाठकोंकी अनुभववृद्धिके लिये यहाँ उस जाँचका कुछ सार दिया जाता है-- : (१) भवनकी मुद्रित सूचीमें रत्नकरंडश्रावकाचारकी जिस प्रतिका नंबर ६३६ दिया है वह मूल प्रति है और उसमें ग्रंथके पद्योंकी संख्या १९० दी हैअर्थात्, ग्रंथकी इस सटीक प्रतिसे अथवा डेढ़सौ श्लोकोंवाली अन्यान्य मुद्रित अमुद्रित प्रतियोंसे उसमें ४० पद्य अधिक पाये जाते हैं । वे चालीस पद्य, अपने अपने स्थानकी सूचनाके साथ, इस प्रकार हैं'नाङ्गहीनमलं ' नामके २१ वें पद्यके बाद
सूर्यायो ग्रहणस्नानं संक्रान्तौ द्रविणव्ययः । संध्यासेवाग्निसंस्कारो ( सत्कारो) देहगेहार्चनाविधिः ॥२१॥ गोपृष्ठान्तनमस्कारः तन्मूत्रस्य निषेवणं । ,
रत्नवाहनभूवक्षशस्त्रशैलादिसेवनं ॥ २३ ॥ 'न सम्यक्त्वसमं' नामके ३४ वें पद्यके बाद
दुर्गतावायुषो बंधात्सम्यक्स्वं यस्य जायते ।
गतिच्छेदो न तस्यास्ति तथाप्यरुपतरास्थितिः ॥ ३८ ॥ 'अष्टगुण' नामके ३७ वें पद्यके बाद
उक्तं च-आणिमा महिमा लघिमागरिमान्तर्धानकामरूपित्वं ।
प्राप्ति प्राकाम्यवशिस्वेशित्वाप्रतिहतत्वमिति वैक्रियिकाः ॥४॥ 'नवनिधि' नामके ३८ वें पद्यके बाद
उक्तं च त्रयं-रक्षितयक्षसहस्रकालमहाकालपाण्डमाणवशंखनैसर्पपद्मपिंगलनानारत्नाश्च नवनिधयः ॥४३॥ ऋतुयोग्यवस्तुभाजनधान्यायुधतूर्यहऱ्यावस्त्राणि । आभरणरत्ननिकरान् क्रमेण निधयः प्रयच्छति ॥४४॥ चक्र छत्रमसिर्दण्डो मणिश्चर्म च काकिणी ।
गृहसनापती तक्षपुरोधाश्वगजस्त्रियः ॥४५॥ 'प्राणातिपात' नामके ५२ वें पद्यके बाद
स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा कषायवान् । पूर्व प्राण्यंतराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ॥ ६० ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org