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वहाँ सहजहीमें विधान किया जा सकता था; जैसा कि पं० मेधावीने, अपने 'धर्मसंग्रहश्रावकाचार' में 'रक्तकौपीनसंग्राही' पदके द्वारा उसका विधान कर दिया है। यदि यह कहा जाय कि वे प्रभाचंद्र तो सं० १३०५ में ही भ्रष्ट होकर रक्ताम्बर हुए थे, उससे पहले तो वे भ्रष्ट नहीं थे, और यह टीका सं० १३०० से भी पहलेकी बनी हुई है, इस लिये भ्रष्ट होनेसे पहलेकी यह उनकी कृति हो सकती है, सो ऐसे होनेकी संभावना अवश्य है; परंतु एक तो इन प्रभाचंद्रके गुरु अथवा पट्टगुरुका नाम मालूम न होनेसे इनकी पृथक सत्ताका कुछ बोध नहीं होता-'विद्वज्जनबोधक' में दिल्लीके उस बादशाहका नाम तक भी नहीं दिया जिसकी आज्ञासे इन्होंने रक्तवस्त्र धारण किये थे अथवा जिसकी इन्हें खास सहायता प्राप्त थी। हो सकता है कि उक्त १३०५ संवत् किसी किंवदन्तीके आधारपर ही लिखा गया हो और वह ठीक न हो। दूसरे, भ्रष्ट होनेके बाद भी वे अपनी पूर्व कृतिमें, अपने तात्कालिक विचारोंके अनुसार, कितना ही उलट फेर कर सकते थे और वह इस टीकाकी अधिकांश प्रतियोंमें पाया जाता । परंतु ऐसा नहीं है, इस लिये यह टीका उन भ्रष्ट हुए रक्ताम्बर प्रभाचंद्रकी बनाई हुई मालूम नहीं होती। बाकीके चार प्रभाचंद्रोंमेंसे ११ वें और १३ नम्बरके प्रभाचंद्र तो दक्षिण भारतके-कर्णाटक देशके-विद्वान् जान पड़ते हैं और वे दोनों एक भी हो सकते हैं, क्योंकि १३ वें नम्बरवाले प्रभाचंद्रके गुरुका नाम मालूम नहीं हो सका-संभव है कि वे 'नयकीर्ति के शिष्य ही हों। रहे १२ वें और १५ वें नम्बरवाले प्रभाचंद्र, वे उत्तर भारतके विद्वान् थे और वे भी दोनों एक व्यक्ति हो सकते हैं; क्योंकि १२ वें नम्बरवाले धारानिवासी प्रभाचंद्रके गुरुका भी नाम मालूम नहीं हो सका-संभव है कि वे अजमेरके * पट्टाधीश 'रत्नकीर्ति' के पट्टशिष्य ही हों, और यह भी संभव है कि धारामें वे. किसी दूसरे आचार्यके शिष्य अथवा पट्टशिष्य रहे हों, वहाँ अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की हो और बादको अजमेरकी गद्दीके भी किसी तरह पर अधीश्वर बन गये हों। और इसीसे आप अपना पूर्वप्रसिद्धि-मय परिचय देनेके लिये उस वक्तसे अपने नामके साथ 'धारानिवासी' विशेषण लिखने लगे हों।
* रत्नकीर्ति अजमेरके पदाधीश थे, इसके लिये देखो इण्डियन ऐंटिक्वेरी. में प्रकाशित नन्दिसंघकी पट्टावलीके आचार्योंकी वह नामावली जो जैनसिद्धान्त: भास्करकी ४ थी किरणमें प्रकाशित हुई है।
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