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मुनि-जीवन और आपत्काल ।
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भस्मकव्याधिविनाशाहारहानित: ' ऐसा सूचित किया गया है जो पर्याप्त नहीं है। दूसरे, यह बात भी कुछ असंगतसी मालूम होती है कि ऐसे गुरु, स्निग्ध, मधुर और श्लेष्मल गरिष्ठ पदार्थोंका इतने अधिक (पूर्ण शतकुंभ जितने ) परिमाण में नित्य सेवन करनेपर भी भस्मकाग्निको शांत होनेमें छह महीने लग गये हों । जहाँ तक हम समझते हैं और हमने कुछ अनुभवी वैद्योंसे भी इस विषय में परामर्श किया है, यह रोग भोजनकी इतनी अच्छी अनुकूल परिस्थितिमें अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकता, और न रोगकी ऐसी हालत में पैदलका इतना लम्बा सफर ही बन सकता है । इस लिये, ' राजावलिकथे' में जो पाँच दिनकी बात लिखी है वह कुछ असंगत प्रतीत नहीं होती । तीसरे, समंतभद्रके - मुखसे उनके परिचयके जो दो काव्य कहलाये गये हैं वे बिलकुल ही अप्रासंगिक जान पड़ते हैं । प्रथम तो राजाकी ओर से उस अवसर पर वैसे प्रश्नका होना ही कुछ बेढंगा मालूम देता है - वह अवसर तो राजाका उनके चरणोंमें पड़ जाने और क्षमा प्रार्थना करनेका था - दूसरे समंतभद्र, नमस्कार के लिये आग्रह किये जानेपर, अपना इतना परिचय दे भी चुके थे कि वे ' शिवोपासक ' नहीं हैं बल्कि 'जिनोपासक' हैं, फिर भी यदि विशेष परिचय के लिये वैसे प्रश्नका किया जाना उचित ही मान लिया जाय तो उसके उत्तर में समन्तभद्रकी ओरसे उनके पितृकुल और गुरुकुलका परिचय दिये जानेकी, अथवा अधिक से अधिक उनकी भस्मकव्याधिकी उत्पत्ति और उसकी शांति के लिये उनके उस प्रकार भ्रमणकी कथाको भी बतला देने की जरूरत थी; परंतु उक्त दोनों पद्यों में यह सब कुछ भी नहीं है— न पितृकुल अथवा गुरुकुलका कोई परिचय है और न भस्मकव्याधिकी उत्पत्ति आदिका ही उनमें कोई जिकर है— दोनों में
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