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स्वामी समंतभद्र। ( ४ ) शाकटायन व्याकरणके 'उपेज्ञाते' सूत्रकी टीकामें टीकाकार श्रीअभैयचन्द्रसूरि लिखते हैं
"तृतीयान्तादुपज्ञाते प्रथमतो ज्ञाते यथायोगं अणादयो भवन्ति ॥ अर्हता प्रथमतो ज्ञातं आहेतं प्रवचनं । सामन्तभद्रं महाभाष्यमित्यादि ॥"
१ यह तीसरे अध्यायके प्रथम पादका १८२ वाँ सूत्र है और अभयचंद्रसूरिके मुद्रित 'प्रक्रियासंग्रह में इसका क्रमिक नं० ७४६ दिया है। देखो, कोल्हापुरके 'जैनेन्द्रमुद्रणालय में छपा हुआ सन् १९०७ का संस्करण ।
२ ये अभयचंद्रसूरि वे ही अभयचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती मालूम होते हैं जो केशववर्णीके गुरु तथा 'गोम्मटसार'की 'मन्दप्रबोधिका' टीकाके कर्ता थे;
और 'लघीयस्त्रय'के टीकाकार भी ये ही जान पड़ते हैं । 'लघीयत्रय'की टीकामें टीकाकारने अपनेको मुनिचंद्रका शिष्य प्रकट किया है और मंगलाचरणमें मुनिचंद्रको भी नमस्कार किया है; 'मंदप्रबोधिका' टीकामें भी 'मुनि'को नमस्कार किया गया है और शाकटायन व्याकरणकी इस प्रक्रियासंग्रह' टीकामें भी 'मुनीन्द्र'को नमस्कार पाया जाता है और वह 'मुनीन्दु' (=मुनिचंद्र ) का पाठान्तर भी हो सकता है। साथ ही, इन तीनों टीकाओंके मंगलाचरणोंकी शैली भी एक पाई जाती है-प्रत्येकमें अपने गुरुके सिवाय, मूलग्रंथकर्ता तथा जिनेश्वर (जिनाधीश ) को भी नमस्कार किया गया है और टीका करनेकी प्रतिज्ञाके साथ टीकाका नाम भी दिया है। इससे ये तीनों टीकाकार एक ही व्यक्ति मालूम होते हैं और मुनिचंद्रके शिष्य जान पड़ते हैं । केशववर्णीने गोम्मटसारकी कनड़ी टीका शक सं० १२८१ (वि० सं० १४१६ ) में बनाकर समाप्त की है, और मुनिचंद्र विक्रमकी १३ वी १४ वीं शताब्दीके विद्वान् थे। उनके अस्तित्व समयका एक उल्लेख सौंदत्तिके शिलालेखमें शक सं० ११५१ (वि० सं० १२८६) का और दूसरा श्रवणबेलगोलके १३७ ( ३४७ ) नंबरके शिलालेखमें शक सं०. १२०० (वि० सं० १३३५) का पाया जाता है । इस लिये ये अभयचंद्रसूरि विक्रमकी प्रायः १४ वीं शताब्दीके विद्वान् मालूम होते हैं । बहुत संभव है कि वे अभयसूरि सैद्धान्तिक भी ये ही अभयचंद्र हों जो ‘श्रुतमुनि'के शास्त्रगुरु थे
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