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परिशिष्ट।
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'अत्र भरतक्षेत्रे वांमिदेशे वसुंधरा नगरी भविष्यति । तत्र नरवाहनो राजा, तस्य सुरूपा राज्ञी......। निजमित्रं मगधस्वामिनं मुनीन्द्रं दृष्ट्वा वैराग्यभावनाभावितो नरवाहनोपि श्रेष्ठिना सुबुद्धिनाम्ना सह जैनी दीक्षां धरिष्यति ।.......धरसेनभट्टारकः कतिपयदिनैर्नरवाहनसुबुद्धिनाम्नोः पठनाकर्णनचिंतनक्रियां कुर्वतोराषाढश्वेतैकादशीदिने शास्त्रं परिसमाप्तिं यास्यति । एकस्य भूता रात्रौ बलिविधिं करिष्यंति, अन्यस्य दन्तचतुष्क सुन्दरं । भूतबलिप्रभावाद्भूतबलिनामा नरवाहनो मुनिर्भविष्यति समदन्तचतुष्टयप्रभावात् सबुद्धिः पुष्पदन्त नामा मुनिर्भविष्यति ।............यथा षट्खण्डागमरचनाकारको भूतबलिभट्टारकस्तथा पुष्पदन्तोपि विंशतिप्ररूपणानां कर्ता ।" .
इस सब कथनपर कोई विशेष विचार न करके हम यहाँपर सिर्फ इतना ही बतलाना चाहते हैं कि, यद्यपि, भारतीय प्राचीन इतिहासके प्रधान ग्रंथों-' अर्ली हिस्टरी ऑफ इंडिया' आदिमें ' नरवाहन' नामके राजाका कोई उल्लेख नहीं मिलता; परन्तु दिगम्बर सम्प्रदायके दो प्राचीन ग्रंथों-'त्रिलोकप्रज्ञप्ति' ( तिलोय-पण्णत्ति ) और 'हरिवंशपुराण' ( जिनसेनकृत ) में उसका उल्लेख जरूर पाया जाता है । साथ ही भाषा हरिवंशपुराणकी श्रीनगेन्द्रनाथ वसु-लिखित प्रस्तावनासे यह भी मालूम होता है कि श्वेताम्बर संप्रदायके 'तित्थुगुलिय–पयण्ण' और 'तीर्थोद्धारप्रकीर्ण' नामक ग्रंथोंमें भी — नरवाहन नामके राजाका
१ देखो 'गांधी हरिभाई देवकरण जैनग्रंथमाला' में प्रकाशित भाषा हरिवंशपुराणका सन् १९१६ का संस्करण ।
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