Book Title: Ratnakarandaka Shravakachara
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 338
________________ २५० परिशिष्ट । प्रज्ञप्ति ' में शकराजाका वीरनिर्वाणसे ४६१ वर्ष बाद होनेका जो प्रधान उल्लेख मिलता है वह प्रायः ठीक है और उसे संभवतः शक राजाके राज्यकालकी समाप्तिका समय समझना चाहिये । अस्तु; इन सब बातोंकी जाँच पड़ताल और यथार्थ निर्णय के लिये विशेष अनुसंधानकी जरूरत है, जिसकी ओर विद्वानोंका प्रयत्न होना चाहिये । ( ४ ) डा० हर्मन जैकोबीने अपने हालके एक लेखमें, * लिखा है कि ' सिद्धसेन दिवाकर ' ईसाकी ७ वीं शताब्दी के विद्वान् थे अथवा उनका यही समय होना चाहिये - क्योंकि वे बौद्ध तत्त्ववेत्ता ' 'धर्मकीर्ति' के न्यायशास्त्र से परिचित थे:-- "...The first Svetambara author of Sanskrit works which have come down to us was Siddhasen Divakara who must be assigned to the 7th century A. D. since he was acquainted with the logics of the Buddhist philosopher Dharmakirti.” डाक्टरसाहबने, यद्यपि, अपने प्रकृत कथनका कोई स्पष्टीकरण नहीं किया परन्तु उनके इस हेतुप्रयोग से इतना जरूर मालूम होता है कि उन्होंने सिद्धसेन दिवाकरके ' न्यायावतार ' ग्रंथकी खास तौर से जाँच की है। और धर्मकीर्तिके ग्रंथों के साथ उसके साहित्यकी भीतरी जाँच परसे ही इस नतीजे को पहुँचे हैं । यदि सचमुच ही उनका यह नतीजा वे * यह लेख भा० दि० जैन परिषद्के पाक्षिकपत्र 'वीर' के गत 'महावीर जयन्ती अंक ' ( नं० ११-१२ ) में प्रकाशित हुआ है । १ बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति ईसाकी ७ वीं शताब्दी के विद्वान् थे, यह बात पहले ( पृ० १२३ ) जाहिर की जा चुकी है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456