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ग्रन्थ- परिचय |
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हजार वर्ष के भीतरका एक भी उल्लेख नहीं है और यह समय इतना तुच्छ नहीं हो सकता जिसकी कुछ पर्वाह न की जाय; बल्कि महाभाष्यके अस्तित्व, प्रचार और उल्लेखकी इस समय में ही अधिक संभाबना पाई जाती है और यही उनके लिये ज्यादा उपयुक्त जान पड़ता है । अतः पहले उल्लेखों के साथ पिछले उल्लेखोंकी श्रृंखला और संगति ठीक बिठलानेके लिये इस बातकी खास जरूरत है कि १२ वीं शताब्दीसे ३ री शताब्दी तकके प्राचीन जैनसाहित्यको खूब टटोला जायउस समयका कोई भी ग्रंथ अथवा शिलालेख देखनेसे बाकी न रक्खा जाय; ऐसा होनेपर इन पिछले उल्लेखाकी श्रृंखला और संगति ठीक बैठ सकेगी और तब वे और भी ज्यादा वजनदार हो जायँगे । साथ ही, इस ढूँढ़-खोजसे समन्तभद्रके दूसरे भी कुछ ऐसे ग्रंथों तथा जीवनवृत्तान्तोंका पता चलनेकी आशा की जाती है जो इस इतिहासमें निबद्ध नहीं हो सके और जिनके मालूम होनेपर समन्तभद्र के इतिहासका और भी ज्यादा उद्धार होना संभव है । आशा है पुरातत्त्वके प्रेमी और समन्तभद्र के इतिहासका उद्धार करने की इच्छा रखनेवाले विद्वान् जरूर इस ढूँढ़खोज के लिये अच्छा यत्न करेंगे और इस तरहपर शीघ्र ही कुछ विवादग्रस्त प्रश्नोंको हल करनेमें समर्थ हो सकेंगे । जो विद्वान् अपने इस विषयके परिश्रम तथा अनुभवसे हमें कोई नई बात सुझाएँगे अथवा इतिहास में निबद्ध किसी बातपर युक्तिपूर्वक कोई खास प्रकाश डालनेका कष्ट उठाएँगे वे हमारे विशेष धन्यवाद के पात्र होंगे और उनकी उस बातको अगले संस्करणमें योग्य स्थान दिये जानेका प्रयत्न किया इति भद्रम् ।
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जायगा ।
जुगलकिशोर, मुख्तार ।
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सरसावा, जिंο सहारनपुर वैशाख शुक्ला २, सं० १९८२
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