________________
ग्रन्थ- परिचय |
२२७
है; परन्तु वह श्वेताम्बरोंका कोई ग्रंथ भी हो सकता है जिसकी इस प्रकारके उल्लेख–अवसरपर अधिक संभावना पाई जाती है । क्योंकि दोनों ही सम्प्रदायों में एक नामके अनेक ग्रंथ होते रहे हैं, और नामोंकी यह परस्पर समानता हिन्दुओं तथा बौद्धोंतक में पाई जाती हैं । अतः इस नाममात्र के उल्लेखसे किसी विशेषताकी उपलब्धि नहीं होती ।
( ६ ) ' न्योयदीपिका ' में आचार्य धर्मभूषणने अनेक स्थानों पर ' आप्तमीमांसा ' के कई पद्योंको उद्धृत किया है, परंतु एक जगह सर्वज्ञकी सिद्धि करते हुए, वे उसके 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः ' नामक पद्यको निम्न वाक्यके साथ उदधृत करते हैं
" तदुक्तं
स्वामिभिर्महाभाष्यस्यादावाप्तमीमांसाप्रस्तावे - "
इस वाक्यसे इतना पता चलता है कि महाभाष्य की आदि में ' आप्तमीमांसा ' नामका भी एक प्रस्ताव है - प्रकरण है - और ऐसा होना कोई अस्वाभाविक नहीं है; एक ग्रंथकार, अपनी किसी कृतिको उपयोगी समझकर अनेक ग्रंथोंमें भी उद्धृत कर सकता है । परंतु इससे यह मालूम नहीं होता कि वह महाभाष्य उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका ही भाष्य है । वह कर्मप्राभूत नामके सिद्धान्तशास्त्रका भी भाष्य हो सकता है और उसमें भी प्रकरणका होना कोई असंभव नहीं कहा ' आप्तमीमांसाप्रस्तावे ' पदमें आए हुए 'आप्तमीमांसा ' शब्दों का वाच्य यदि समन्तभद्रका संपूर्ण ' आप्तमीमांसा
6
आप्तमीमांसा' नामके एक जा सकता । इसके सिवाय
नामका देशपरिच्छे
"
१ यह ग्रंथ शक सं० १३०७ ( वि० सं० १४४२ ) में बनकर समाप्त हुआ है और इसके रचयिता धर्मभूषण 'अभिनव धर्मभूषण' कहलाते हैं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org