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स्वामी समन्तभद्र ।
· स्पष्ट रूपसे वादकी घोषणा है; बल्कि दूसरे पद्यमें तो, उन स्थानों का नाम देते हुए जहाँ पहले वादकी भेरी बजाई थी, अपने इस भ्रमणका उद्देश्य भी 'वाद' ही बतलाया गया है । पाठक सोचें, क्या समंतभके इस भ्रमणका उद्देश्य 'वाद' था ? क्या एक प्रतिष्ठित व्यक्तिद्वारा विनीत भाव से परिचयका प्रश्न पूछे जाने पर दूसरे व्यक्तिका उसके उत्तर में लड़ने झगड़नेके लिये तय्यार होना अथवा वादकी घोषणा करना शिष्टता और सभ्यताका व्यवहार कहला सकता है ? और क्या समंतभद्र जैसे महान् पुरुषों के द्वारा ऐसे उत्तरकी कल्पना की जा सकती है ? कभी नहीं । पहले पद्यके चतुर्थ चरण में यदि वादकी घोषणा न होती तो वह पद्य इस अवसरपर उत्तरका एक अंग बनाया जा सकता था; क्यों कि उसमें अनेक स्थानोंपर समंतभद्र के अनेक वेष धारण करनेकी बातका उल्लेख है * । परंतु दूसरा पद्य तो यहाँ पर कोरा अप्रासंगिक ही है—वह पद्य तो ' करहाटक ' नगर के राजाकी सभा में कहा हुआ पद्य है, जैसा कि पहले - गुणादि-परिचय' में बतलाया जा चुका है । उसमें साफ लिखा भी है कि मैं अब उस करहाटक (नगर) को प्राप्त हुआ हूँ जो बहुभटोंसे युक्त है, विद्याका उत्कटस्थान है और जनाकीर्ण है । ऐसी हालत में पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि बनारस के राजाके प्रश्नके उत्तर में समंतभद्र से यह कहलाना कि अब मैं इस करहाटक नगर में
* यह बतलाया गया है कि "कांची में मैं नग्नाटक ( दिगम्बर साधु ) हुआ, -वहाँ मेरा शरीर मलसे मलिन था; लाम्बुशमें पाण्डुपिण्ड रूपका धारक ( भस्म रमाए
साधु ) हुआ; पुण्ड्रोड्रमें बौद्ध भिक्षुक हुआ; दशपुर नगर में मृष्टभोजी परिव्राजक हुआ, और वाराणसी में शिवसमान उज्ज्वल पाण्डुर अंगका धारी मैं तपस्वी (शैवसाधु ) हुआ हूँ; हे राजन् मैं जैन निर्ग्रथवादी हूँ, जिस किसीकी - शक्ति मुझसे वाद करने की हो वह सामने आकर वाद करे ।
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