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स्वामी समन्तभद्रः ।
बेलगोल के शिलालेखों आदिमें ऐसे बहुतसे नामोंका उल्लेख पाया जाता है। पट्टावली में 'गृध्रपिच्छ' और 'वक्रग्रीव' ये दो नाम जो और दिये हैं उनकी भी कहीं से उपलब्धि नहीं होती। उन नामोंके दूसरे ही विद्वान् हुए हैं - गृध्रपिच्छ उमास्वातिका दूसरा नाम था, जिसका उल्लेख कितने ही शिलालेखों तथा ग्रंथोंमें पाया जाता है, और " वक्रीव , नामके भिन्न आचार्यका उल्लेख भी श्रवणबेलगोलके ५४ वें शिलालेख आदि में मिलता है । इसी तरहपर ' एलोचार्य ' नामके भी दूसरे ही विद्वान् हुए हैं, जिनसे भगवज्जिनसेनके गुरु श्रीवीर सेनाचार्यने सिद्धान्तशास्त्रों को पढ़कर उन पर 'धवला " और 6 " जयधवला नामकी टीकाएँ लिखी थीं, जिन्हें धवल और जयवबल सिद्धान्त भी कहते हैं । ' धवलो' टीकाको वीरसेनने शक सं० ७३८ में बनाकर समाप्त 'किया था; इससे ' एलाचार्य ' विक्रमकी ९ वीं शताब्दी के विद्वान् थे ।
चक्रवर्ती महाशय के कथनानुसार, डाक्तर जी० यू० पोपने ' कुरल ' का • समय ईसाकी ८ वीं शताब्दीसे कुछ पीछेका बतलाया है और वह समय इन एलाचार्य के समय के अनुकूल पड़ता है । आश्चर्य नहीं, यदि
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कुरल' का यही समय हो तो उसकी रचनामें इन एलाचार्यने कोई
१ "काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी ।
श्रीमाने लाचार्यो बभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः ॥ १७७ ॥
तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः ।" इत्यादि
२ ' धवला ' टीकाकी प्रशस्ति में,
: निम्नप्रकार से उल्लेख किया है—
- इन्द्रनन्दिश्रुतावतार ।
स्वयं वीरसेन आचार्यने एलाचार्यका
“ जस्स सेसाण्णमये सिद्धंतमिदि हि अहिलहुंदी - । महुं सो एलाइरिओ पसियउ वरवीरसेणस्स” ॥ १ ॥
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