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ग्रन्थ- परिचय |
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है* इससे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि इस ग्रंथके ११४ श्लोक कितने अधिक महत्त्व, गांभीर्य तथा गूढार्थको लिये हुए हैं; और इस लिये, श्रीवीरनंदि आचार्यने 'निर्मलवृत्तमौक्तिका हारयष्टि' की तरह और नरेंद्रसेनाचार्य ने " मनुष्यत्व' के समान समंतभद्रकी भारतीको जो 'दुर्लभ' बतलाया है उसमें जरा भी अत्युक्ति नहीं है । वास्तव में इस ग्रंथकी प्रत्येक कारिकाका प्रत्येक पद ' सूत्र ' है और वह बहुत ही जाँच तौलकर रक्खा गया है— उसका एक भी अक्षर व्यर्थ नहीं है । यही वजह है कि समंतभद्र इस छोटेसे कूजेमें संपूर्ण मतमतान्तरोंके रहस्यरूपी समुद्रको भर सके हैं और इस लिये उसको अधिगत करनेके लिये गहरे अध्ययन, गहरे मनन और विस्तीर्ण हृदयकी खास जरूरत है ।
हिन्दी में भी इस ग्रंथपर पंडित जयचंदरायजीकी बनाई हुई एक टीका मिलती है जो प्रायः साधारण है । सबसे पहले यही टीका हमें उपलब्ध हुई थी और इसी परसे हमने इस ग्रंथका कुछ प्राथमिक परिचय प्राप्त किया था । उस वक्त तक यह ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुआ था, और इसलिये हमने बड़े प्रेमके साथ, उक्त टीकासहित, इस ग्रंथकी प्रतिलिपि स्वयं अपने हाथसे उतारी थी । वह प्रतिलिपि अभी • तक हमारे पुस्तकालय में सुरक्षित है । उस वक्त से बराबर हम इस मूल ग्रंथको देखते आ रहे हैं और हमें यह बड़ा ही प्रिय मालूम होता है ।
इस ग्रंथपर कनड़ी, तामिलादि भाषाओं में भी कितने ही टीकाटिप्पण, विवरण और भाष्य ग्रंथ होंगे परंतु उनका कोई हाल हमें
* इस विषय में, श्वेताम्बर साधु मुनिजिनविजयजी भी लिखते हैं
"यह देखने में ११४ श्लोकोंका एक छोटासा ग्रन्थ मालूम होता है, पर इसका गांभीर्य इतना है कि, इस पर सैकड़ों-हजारों श्लोकोंवाले बड़े बड़े गहन भाष्य - विवरण आदि लिखे जाने पर भी विद्वानों को यह दुर्गम्यसा दिखाई देता है ।"जैनहितैषी भाग १४, अंक ६ ।
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