________________
२०४
स्वामी समंतभद्र |
साधारणतया अच्छी है परंतु ग्रंथके रहस्यको अच्छी तरह उद्घाटन करने के लिये पर्याप्त नहीं है । इस ग्रंथपर अवश्य ही दूसरी कोई उत्तम टीका भी होगी, जिसे भंडारोंसे खोज निकालने की जरूरत है । यह स्तोत्र' क्रियाकलाप ' ग्रंथ में भी संग्रह किया गया है, और क्रियाकलापपर पं० आशाधरजीकी भी एक टीका कही जाती है, इससे इस ग्रंथपर पं० आशाधरजीकी भी टीका होनी चाहिये । ४ जिनस्तुतिशतक |
'
यह ग्रंथ ' स्तुतिविद्या,' 'जिनस्तुतिशतं ' ' जिनशतक और ' जिनशतकालंकार' नामोंसे भी प्रसिद्ध है । ' स्तुतिविद्या ' यह नाम ग्रंथ के 'स्तुतिविद्यां प्रसाधये ' इस आदिम प्रतिज्ञावाक्य से निकलता है, 'जिनस्तुतिशतं नाम ग्रंथके अन्तिम कविकाव्यनामगर्भचक्रवृत्त से पाया जाता है, उसीका ' जिनस्तुतिशतक' हो गया है । और 'जिनशतक' यह संक्षिप्त नाम टीकाकारने अपनी टीकामें सूचित किया है । अलंकारप्रधान होनेसे इसे ही 'जिनशतकालंकार' भी कहते हैं । यह ग्रंथ भक्तिरस से लबालब भरा हुआ है, रचनाकौशल तथा चित्रकाव्योंके उत्कर्षको लिये हुए हैं, सर्व अलंकारों से भूषित है और इतना दुर्गम तथा कठिन है कि बिना संस्कृतटीकाकी सहायताके अच्छे अच्छे विद्वान् भी इसे सहसा नहीं लगा सकते । इस ग्रंथका कितना ही परिचय पहले दिया जा चुका है । इसके पद्योंकी संख्या १९६ है और उन पर एक ही संस्कृतटीका उपलब्ध है जो नरसिंह भट्टकी बनाई हुई है । नरसिंह भट्टकी टीका से पहले इस ग्रंथपर दूसरी कोई टीका नहीं थी, ऐसा टीकाकारके एक वाक्यसे पाया जाता है; और उसका यही अर्थ हो सकता है कि नरसिंहजी के समय में अथवा उनके देशमें, इस ग्रंथकी कोई टीका उपलब्ध नहीं थी । उससे पहले
1
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org