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ग्रन्थ- परिचय |
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निकलती हैं कि वह समन्तभद्रका एक स्वतंत्र और प्रधान ग्रंथ है । देवागम ( आप्तमीमांसा ) की अन्तिम कारिका भी इसी भावको पुष्ट करती हुई नजर आती है और वह निम्न प्रकार हैतीयमासमीमांसा विहिता हितमिच्छतां । सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ॥
वसुनन्दि आचार्यने, अपनी टीकामें इस कारिकाको 'शास्त्रार्थोपसंहार- कारिका' लिखा है, और इसकी टीकाके अन्तमें समंतभद्रका कृतकृत्यः निर्व्यूढतत्त्वप्रतिज्ञः' इत्यादि विशेषणोंके साथ उल्लेख किया है। विद्यानंदाचार्यने, अष्टसहस्रीमें, इस कारिका के द्वारा प्रारब्धनिर्वहण — प्रारंभ किये हुए कार्य की परिसमाप्ति - आदिको सूचित करते हुए, देवागम ' को ' स्वोतपरिच्छेद शास्त्र' बतलाया है— अर्थात्, यह प्रतिपादन किया है कि इस शास्त्रमें जो दश परिच्छेदोंका विभाग पाया जाता है वह स्वयं स्वामी समन्तभद्रका किया हुआ है । अकलंकदेवने भी, ऐसा ही प्रतिपादन किया है । और इस सब कथनसे
"
१ जो लोग अपना हित चाहते ह उन्हें लक्ष्य करके, यह 'आप्तमीमांसा' सम्यक् और मिथ्या उपदेश के अर्थविशेषकी प्रतिपत्ति के लिये कही गई है ।
२ शास्त्र के विषयका उपसंहार करनेवाली अथवा उसकी समाप्तिकी सूचक कारिका ।
३ ये दोनों विशेषण समन्तभद्रके द्वारा प्रारंभ किये हुए ग्रंथकी परिसमाको सूचित करते हैं ।
४ " इति देवागमाख्ये स्वोक्तपरिच्छेदे शास्त्रे ( स्वेनोक्ताः परिच्छेदा दश यस्मिंस्तत् स्वोक्तपरिच्छेदमिति ग्राह्यं तत्र ) विहितेयमाप्तमीमांसा सर्वज्ञविशेष - परीक्षा......" अष्टसहस्त्री ।
५ " इति स्वोक्तपरिच्छेदविहितेयमाप्तमीमांसा सर्वज्ञविशेषपरीक्षा ।"
-अष्टशती ।
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