________________
ग्रन्थ- परिचय |
३ 'स्वयंभू' स्तोत्र |
इसे 'बृहत्स्वयंभू स्तोत्र' और 'समन्तभद्रस्तोत्र' भी कहते हैं । ' स्वयंभुवा' पदसे प्रारंभ होनेके कारण यह ' स्वयंभू स्तोत्र', समाजमें दूसरा छोटा 'स्वयंभू स्तोत्र' भी प्रचलित होनेसे यह 'बृहत्स्वयंभू स्तोत्र' और समन्तभद्रद्वारा विरचित होनेसे यह 'समंत - भद्रस्तोत्र' कहलाता है । इसके सिवाय, इसमें चतुर्विंशति स्वयंभुवोंकी - तीर्थंकरों अथवा जिनदेवोंकी स्तुति है इससे भी इस स्तोत्रका सार्थक नाम ‘स्वयंभू-स्तोत्र' है । इस ग्रंथ में अर, नेमि और महावीरको छोड़कर शेष २१ तीर्थकरों की स्तुति पाँच पाँच पद्योंमें की गई है और उक्त तीन तीर्थंकरोंकी स्तुतिके पद्य क्रमशः २०,१० और ८ दिये हैं । इस तरहपर इस ग्रंथकी कुल पद्यसंख्या १४३ है । यह ग्रंथ भी बड़ा ही महत्त्वशाली है, निर्मल सूक्तियोंको लिये हुए है, प्रसन्न तथा स्वल्प पदोंसे विभूषित है और चतुर्विंशति जिनदेवोंके धर्मको प्रतिपादन करना ही इसका एक विषय है । इसमें कहीं कहीं पर — किसी किसी तीर्थंकर के सम्बन्धमें --- कुछ पौराणिक तथा ऐतिहासिक बातों का भी उल्लेख किया गया है, जो बड़ा ही रोचक मालूम होता है । उस उल्लेखको छोड़कर शेष संपूर्ण ग्रंथ स्थान स्थान पर, तात्त्विक वर्णनों और धार्मिक शिक्षाओंसे परिपूर्ण है । यह ग्रंथ अच्छी तरहसे समझकर नित्य पाठ किये जाने के योग्य है ।
इस ग्रंथ पर क्रियाकलापके टीकाकार प्रभाचंद्र आचार्यकी बनाई हुई अभी तक एक ही संस्कृतटीका उपलब्ध हुई है । टीका
२०३.
१ 'जैनसिद्धान्त भवन आरा' में इस ग्रंथकी कितनी ही ऐसी प्रतियाँ कनड़ी. अक्षरोंमें मौजूद हैं जिन पर ग्रंथका नाम 'समंतभद्रस्तोत्र' लिखा है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org