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... समय-निर्णय ।
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तीसरी शताब्दीके विद्वान् ठहरते हैं और यह समय डाक्टर भांडारकरकी रिपोर्ट में उल्लेखित उस पट्टावलीकै समयके प्रायः अनुकूल पड़ता है जिसमें समन्तभद्रको शक संवत् ६० (वि० सं० १९५) के करीबका विद्वान् बतलाया गया है और जिसे लेविस राइस आदि विद्वानोंने भी प्रमाण माना है।
यदि किसी तरह पर प्राकृत पट्टावलीकी गणना ही दूसरे प्राचीन ग्रंथोंकी गणनाके मुकाबले में ठीक सिद्ध हो, और उसके अनुसार भद्रबाहु द्वितीयका वि० सं० ४ में ही आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होना करार दिया जावे; साथ ही, यह मान लिया जावे कि कुन्दकुन्दने वि० सं० १७ में उनसे दीक्षा ली थी, तो इससे कुन्दकुन्दका मुनिजविनकाल वि० सं० १७ सं० १०१ तक हो जाता है, और यह वही समय है जो नन्दिसंघकी दूसरी पट्टावलीमें दिया है और जिसपर चक्रवर्ती महाशयके कथन-सम्बंधमें ऊपर विचार किया जा चुका है। इस समयको मान लेने पर समन्तभद्र तो विक्रमकी दूसरी शताब्दीके विद्वान् ठहरते ही हैं परन्तु उन सब आपत्तियोंके समाधानकी भी जरूरत रहती है जो ऊपर खड़ी की गई हैं, अथवा यह मानना पड़ता है कि कुन्दकुन्दाचार्य अर्हद्वलि, माघनंदी, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि और गुणधर आदि आचार्योंसे पहले हुए हैं और उन्होंने पुष्पदन्त-भूतबलिके 'षट् खण्डागम ' पर कोई 'टीका नहीं लिखी ।
तुम्बुलूराचार्य और श्रीवर्द्धदेव । (ङ) श्रुतावतारमें, समन्तभद्रसे पहले और पद्मनन्दि ( कुन्दकुन्द ) मुनि तथा शामकुण्डाचार्य के बाद, सिद्धान्तग्रंथोंके टीकाकार
१ कुन्दकुन्दाचार्यकी बनाई हुई 'षट्खण्डागम' सिद्धान्त ग्रंथपर कोई टीका उपलब्ध नहीं है।
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