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स्वामी समन्तभद्र ।
जयति जगति क्लेशावेशप्रपंच हिमांशुमान् विहतविषमैकान्तध्वान्तप्रमाणनयांशुमान् । यतिपतिरजो यस्याधृष्टान्मताम्बुनिधेलवान् स्वमतमतयस्तीर्थ्या नाना परे समुपासते ।। ११५ ॥
यह पद्य यदि वृत्तिके अंतमें ऐसे ही दिया होता तो हम यह नतीजा निकाल सकते थे कि यह वसुनन्दि आचार्यका ही पद्य है और उन्होंने अपनी वृत्तिके अंन्त- मंगलस्वरूप इसे दिया है । परंतु उन्होंने इसकी वृत्ति दी है और साथ ही इसके पूर्व निम्न प्रस्तावनावाक्य भी दिया है—
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" कृतकृत्यो निर्व्यूढतत्वप्रतिज्ञ आचार्यः श्रीसमन्तभद्रकेसरी प्रमाण- नयतीक्ष्णनखरदंष्ट्रा विदारित-प्रवादिकुनय मदविह्नलकुंभिकुंभस्थलपाटनपडुरिदमाह--- "
इससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं, एक तो यह कि यह पद्य वसुनन्दि आचार्यका नहीं है, दूसरे यह कि वसुनन्दिने इसे समन्तभद्रका ही, ग्रंथके अन्त मंगलस्वरूप, पद्य समझा है और वैसा समझ कर ही.. इसे वृत्ति तथा प्रस्तावनासहित दिया है । परंतु यह पद्य, वास्तवमें, मूल ग्रंथका अन्तिम पद्य है या नहीं यह बात अवश्य ही विचारणीय है और उसीका यहाँ पर विचार किया जाता है
इस ग्रंथपर भट्टाकलंकदेवने एक भाष्य लिखा है जिसे ' अष्टशती' कहते हैं और श्रीविद्यानंदाचार्यने ' अष्टसहस्री' नामकी एक बड़ी टीका लिखी है जिसे ' आप्तमीमांसालंकृति ' तथा 'देवागमालंकृति " भी कहते हैं । इन दोनों प्रधान तथा प्राचीन टीकाग्रंथों में इस पद्यको मूल ग्रंथका कोई अंग स्वीकार नहीं किया गया और न इसकी कोई
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